मेरी प्रकाशित पुस्तकें :-


(1) एक लपाग ( गढ़वाली कविता-गीत संग्रह)- समय साक्ष्य, (2) गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (गढ़वाली भाषा साहित्य का ऐतिहासिक क्रम )-संदर्भ एवं शोधपरक पुस्तक - विन्सर प्रकाशन, (3) लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह )- समय साक्ष्य, (4) उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह )- उत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ


Monday, June 14, 2021

गढ़वाली गीत संग्रह "तू हिटदि जा " की समीक्षा समीक्षक - डॉ.चरणसिंह केदारखंडी

गढ़वाली गीत संग्रह "तू हिटदि जा " की समीक्षा
समीक्षक - डॉ.चरणसिंह केदारखंडी

      रसायन विज्ञान के प्रवक्ता ,लोकभाषा और साहित्य को समर्पित संस्था "आखर समिति" (श्रीनगर गढ़वाल)के संचालक/संस्थापक और गढ़वाली कविता और गद्य साहित्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने वाले संदीप रावत जी आज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं...

      अब तक रावत जी गढ़वाली में पाँच क़िताबें लिख चुके हैं जिनमें 'एक लपाग'( कविता-गीत संग्रह), 'गढ़वाली भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा'(शोधपरक गढ़वाली ऐतिहासिक एवं सन्दर्भ पुस्तक ) , 'लोक का बाना'( गढ़वाली लेख संग्रह) , 'उदरोल'(गढ़वाली कथा संग्रह) और 'तू हिटदि जा'( गढ़वाली गीत संग्रह) शामिल हैं।

      'तू हिटदि जा'(तुम चलते रहो !) इस शीर्षक को पढ़ने मात्र से ही इस अँधेरे समय में भीतर एक आशावाद जन्मता है ! असल में, मंज़िल पर पहुँचने से ज़्यादा उसकी ओर 'चलते रहने' में जीवन की गुरुता और सौंदर्य छुपा हुआ है। श्री अरविन्द ने अपनी कालजयी कविता सावित्री में कहा भी है : attempt, not victory, is the charm of life.

रोबर्ट लुइस स्टीवेंसन ने अपने निबंध 'El DORADO' का अंत भी इस तरह किया है :
"...to travel hopefully is better than to arrive at..".



       क़िताब के पृष्ट आवरण पर दी गई शीर्षक कविता "तू हिटदि जा" को पढ़कर अनायास ही 'हरिऔध' जी की मशहूर कविता 'कर्मवीर' याद आती है। आप "हथयूं का रखड़ा कर्मोंन तू बदलदि जा" में "पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे " की अनुगूँज सुन सकते हैं।

     दुनियां में सभी सफ़ल कहानियां खून, पसीने और जीतोड़ परिश्रम की कहानियां हैं । सोशल मीडिया के इस अलसी समय में हमारी युवा पीढ़ी के लिए कवि की इससे बेहतर क्या ललकार हो सकती है :

"पौड़ बाटि ही निकल्द दगढ़या मिठ्ठू पाणी रे
मीनत करी स्वर्ग भी मिल्द , छोड़ ना गाणि -स्याणी रे !"

    'तू हिटदि जा' गीत संग्रह नहीं, समकालीन पहाड़ी 'तू हिटदि जा'जनमानस के सवालों और सरोकारों का बोलता हुआ आईना है। इसमें ख़्वाब हैं, ख़ौफ़ हैं, कुर्फ़ हैं, कैफियतें हैं, आरजू हैं, आकाश हैं और कांच के महीन टुकड़ों (shards)के मानिंद बिखरे पहाड़ी सपनों के गर्भपात का गुस्सा है। पहाड़ी जीवन के जितने रंग ढंग हो सकते हैं उतने इस कविता संग्रह में मौजूद हैं। इसमें हम सबके शरीर में धड़कन बनकर धड़कती 'ब्वे' (माँ) है( पृष्ट 32, मेरी ब्वे"), इसमें हिमालय की गोद में खिलखिलाते संदीप जी के घर गाँव (गों गोठियार) की महक है( मि वे मुल्क कु छोउँ पृष्ट 37), इसमें रूमानी प्रेम की खुशबू भी सराबोर है ( तेरी माया कि झौल पृष्ट 64 ), इसमें जात पांत में विभाजित समाज के लिए गहरी फटकार है ( गुणि नि जानि पृष्ट 72

"बनि-बन्या धरम दर्शनों को , सार नी बींगी हमुन
मनखी-मनखी मा झणी किलै ,भेद करी द्यायि हमुन ?"

         इसमें बेटी की जीवन, शिक्षा और सम्मान की चिंता है ( बेटी बचावा, बेटी पढ़ावा पृष्ट 51) तो पहाड़ की पीड़ा पढ़ते समय बरबस ही आँखे भर आती हैं । पहाड़ ख़ुद बोलता है :

"अंसधरी म्येरी क्वे नी द्यखणा
खेरी मेरी क्वे नी बिंगणा
कै मा बिंगौवु मि को छ बैरी ?
भितरै -भितर खयेंणु आज "
(इस बीस सालों में जिन लोगों ने पहाड़ को लूट खसोट का अड्डा बनाया है वो बाहरी नहीं, हमारे अपने लोग हैं। पहाड़ कहे भी तो किससे कहे ? पानी के धारे में ही आग लगने जैसे हालात हैं...)

      विकास के नाम पर सुरंगों के भीतर कैद होती गंगा की चिंता भी हमारे कवि के जेहन में है(पृष्ट 47).
गों गुठ्यार और पितरों की कुड़ी नीलाम करके देहरादून और घमतपवे भाबर हल्द्वानी में बैठे लोगों( जो रात दिन पलायन पर विमर्श करते हैं, )के लिए पहाड़ और मैदान के बीच की अस्मिता ,अहंता का जिस प्रकार का सांस्कृतिक संकट खड़ा हो गया है उस पर 'मेरा पाड़ मा'(पृष्ट 50) जैसी कविता लिखी गई है। वैचारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दोगलापन चुपके से हमारे जीवन में घुस गया है, मनखी यहाँ rolling stones यानी बेपेंदे के लोटे हो गए हैं। जिस पत्ते या पौधे में पानी की एक बूंद भी नहीं टिक पाती उसे 'पापड़ पाणी' कहा जाता है। संदीप जी ने क्या ख़ूब उपमा दी है :

"गात मा गुण नि रै ग्ये, जीभ कू स्वाद बि हर्ची ग्ये
मनखी पापड़ पाणी ह्वे ग्ये मेरा पाड़ मा "(50)

          इसके अलावा बरखा, बादल, बसंत,बग्वाल फ़ाग और फाल्गुन की भी पूरी दस्तक है इस काव्य संग्रह में । नेता जिस प्रकार जनता को चराते हैं उस पर आपको हँसाने के लिए एक करारा राजनैतिक व्यंग्य है( पृष्ट 76, मि आणु छों ! )

"आणु छौं रे आणु छौं
मि भाषण देंण आणु छौं
जाँत पाँत का फिंडका फोड़ी
तुमतैं चरौणु आणु छौं ☺️☺️

      उत्तराखंड का ही नहीं, पूरे देश का समाज जिस प्रकार धर्म जाति के व्यामोह में उलझा हुआ है उसे देखकर इस कविता का आकाश व्यापक हो जाता है। इसके अलावा हाथों में वैचारिक तलवारें लेकर समाज सुधार करने निकले इस मनमौजी समय के लिए एक दार्शनिक कविता है पृष्ट 67 पर है :
"मन की आँख्यूंन अफु तैं अफी देख सकदि त देख ले " !

      लेकिन बिडम्बना यह है कि आजकल आलोचक की नज़र से ख़ुद को देखने की फुर्सत किसे है ? फेसबुक पर एक नेगेटिव कमेंट पढ़कर लोग कुल्हाड़े लेकर पीछे दौड़ पड़ते हैं !

       20वीं सदी में अमेरिका के सबसे प्रभावशाली कवियों में एक रोबर्ट फ्रॉस्ट की कविता "ROAD NOT TAKEN" की अनायास याद आती है तू हिटदि जा की कविता "लीक से हटीक" पढ़कर। पायनियर कौन है ? जो रास्ता दिखाये भी और बनाये भी ! घिसे पिटे(charted) रास्तों पर चलने से क्या फ़ायदा ? हम यहाँ भेड़ या भीड़ का हिस्सा बनने नहीं आये हैं।
पढ़िए इस आनंद को :

"सौंगा बाटों मा सदानि मनख्यूँ का लैंजा रौंदन
औखा बाटों बि जरा तू हिटीक दिखौ !"

       सभ्य इंसानों और जंगली जानवरों से बराबर परेशान पहाड़ की पीड़ा और उस पीड़ा का निवारण "कंनक्वे रौंण ये पहाड़ मा" और "इन्क्वे रौंण ये पहाड़ मा" जैसे कविताओं में पेश किया गया है।

       48 की उम्र में(2019) में लिखी गई(प्रकाशित) इन कविताओं की 48 संख्या का यही राज है। नाज़ुक मिज़ाज और कवि से ज़्यादा एक मिलनसार आदमी और बेहद विनम्र इंसान संदीप रावत का संवेदनाओं की गहरी परतों तक जाना कतई भी आश्चर्य का विषय नहीं है। प्रकृति अपनी निर्मल आवाज़ें ख़ुद चुनती है , अपने अलंकरण ख़ुद गढ़ती है।

      मुझे ख़ुशी है कि रावत जी अभी समकालीन साहित्य विरादरी की परंपरा के उलट "साहित्य शिरोमणि" और "भारत भूषण" बनने के लिए बेचैन नहीं दीखते हैं।
आज का समय दूसरे की छाती पर सवार होकर ख़ुद की बुलंदी हासिल करने का समय है : साहित्य, सिनेमा, खेल, राजनीति, समाज सेवा-- इस तरह की होड़ सब जगह दिखती है ।
     अपनी एक बेहद मार्मिक कविता "वु बाटु" (पृष्ट 26) में रावत जी एक साफ़ सुथरे और स्वस्थ समाज की कल्पना इस प्रकार करते हैं :

"ना हो जख स्वारथ कू सांटु
ना हो जख तिकड़म कु जांठु
ना हो जख रींस कु कांडू
ना लुछु क्वी कैकू बांठु...
मी हिटण चांदू सदानी वु बाटू ।"

     चार भागों में विभाजित कुल 80 पृष्ट और 150 रुपये मूल्य की इस क़िताब का प्रकाशन *रावत डिजिटल गाजियाबाद* ने किया है। भास्कर भौर्याल और दीपक नेगी ने आवरण पृष्ट तैयार किया है और संग्रह को अपना आशीर्वाद दिया है हमारी दीदी पूर्व संगीत निदेशिका आकाशवाणी डॉ. माधुरी बड़थ्वाल ने।भूमिका (पवांण ) उत्तराखंड के एक और उदीयमान लोक साहित्य के नक्षत्र भाई गीतेश सिंह नेगी (घुर घुघति घुर क़िताब के चर्चित लेखक)ने लिखी है जिसमे उन्होंने भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के आचार्यों से लेकर आचार्य रजनीश( ओशो) के उद्धरण देकर इस बेहद पठनीय और मननीय , महनीय ग्रन्थ का परिचय कराया है।

     इस गीत संग्रह की साहित्यिक गंभीरता, सरसता और इससे बढ़कर इसकी प्रासंगिकता को देखते हुए इसे आंचलिक भाषा के प्रश्रपत्र के अंतर्गत गढ़वाल विश्वविद्यालय सहित अन्य विद्यापीठों में युवा पीढ़ी को पढ़ाया जाना चाहिए। क़िताब को सुबह की हवा की तरह पीने वाले मेरे दोस्तों से आग्रह है कि इस तरह का साहित्य खरीदकर ही पढ़ें अन्यथा सरकारी सचिवालय संपन्न साहित्यकारों को 'विपन्न साहित्यकार' की पेंशन देता रहेगा...

संदीप रावत जी के लिए मै जो सबसे अच्छी बात कहूँगा वह यह है :

बिना आत्म सम्मोहन के मेरा दिदा,
"तू हिटदी जा" !!!

डॉ.चरणसिंह केदारखंडी
श्री अरविन्द ग्राम तुलंगा
केदारनाथ हिमालय।

नोट - यह गढ़वाली गीत संग्रह निम्न स्थानों पर उपलब्ध है --
(1) https://www.paharibazar.com/product/tu-hitdi-ja-garhwali-geet-sangrah-by-sandeep-rawat/
(2)रावत डिजिटल पब्लिकेशन, इंद्रापुरम गाजियाबाद
(3)भट्ट ब्रदर्स, बसंत विहार, देहरादून
(4)स्वयं गीतकार संदीप रावत (9411155059)
(5)ट्रांसमीडिया (रेनबो पब्लिक स्कूल के सामने )श्रीनगर गढ़वाल
 

3 comments:

  1. गढ़वाली गीत संग्रह "तू हिटदि जा " की समीक्षा प्रस्तुति हेतु आपका आभार
    आदरणीय संदीप रावत जी को गीत संग्रह "तू हिटदि जा" के प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामनाएँ

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    1. हार्दिक धन्यवाद 🙏

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  2. सौंगा बाटों मा सदानि मनख्यूँ का लैंजा रौंदन
    औखा बाटों बि जरा तू हिटीक दिखौ !
    बहुत अच्छी समीक्षा की गई है जो गीत संग्रह के हर पहलू को पाठकों के समक्ष रखती है व जिज्ञासा जाग्रत करती है। हार्दिक बधाई व असीम शुभकामनाएं।

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