मेरी प्रकाशित पुस्तकें :-


(1) एक लपाग ( गढ़वाली कविता-गीत संग्रह)- समय साक्ष्य, (2) गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (गढ़वाली भाषा साहित्य का ऐतिहासिक क्रम )-संदर्भ एवं शोधपरक पुस्तक - विन्सर प्रकाशन, (3) लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह )- समय साक्ष्य, (4) उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह )- उत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ


Friday, November 8, 2019

कविता -*उत्तराखण्ड बणिगे* © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

                 *उत्तराखण्ड बणिगे*

'हम कोदू - झंग्वारू खौंला
पर उत्तराखण्ड बणौला '
ये नारा का दगड़ी
लोगुन सड़क्यूं परैं लड़ी लड़ै
भूख -तीस सै ,
अपणा हडग्यूं तुड़वै
कैsन अपणी ज्यान द्ये
तब जै कि  उत्तराखण्ड पै |
पर !
तब क्या ह्वे ?
हमारा सुपिन्या
कुर्च्येणा छन ,
जल- जंगल-जमीन का पुस्तैनी हक
हमुसे लुच्छ्येणा छन  |
           "एक लपाग " बटि  © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

Thursday, October 24, 2019

आलेख - *बी. मोहन नेगी विविध आयामी व्यक्तित्व के धनी एवं उत्तराखण्ड की अनमोल धरोहर थे * ©संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल

   प्रसिद्ध चित्रकार स्व.बी. मोहन नेगी जी की द्वितीय पुण्य तिथि ( 25 अक्टूबर ) पर विनम्र श्रद्धांजलि --

*बी.मोहन जी विविध आयामी व्यक्तित्व के धनी एंव उत्तराखण्ड की अनमोल धरोहर थे | *
             © संदीप रावत ,न्यूं डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |
        गढ़वाल की इस उर्वरा भूमि में देश की कई असाधारण प्रतिभाओं ने जन्म लिया ,जिन्होंने अपूर्व ख्याति अर्जित की | बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रसिद्ध चित्रकार उत्तराखण्ड की ऐसी धरोहरों में से एक थे जिन्होंने  निरन्तर अपने प्रयासों से, रंग-लेखनी ,कोलाजों के माध्यम से ,चित्रकारी के माध्यम से  ,कविता पोस्टरों के माध्यम से अपनी एक  अलग पहचान बनाई  और उत्तराखण्ड की संस्कृति,भाषा-साहित्य  को विभिन्न कोलाजों ,चित्रकारी/ रेखांकनों के माध्यम से उजागर करने एंव प्रचार-प्रसार करने में सदैव अग्रणीय भूमिका निभाई |
       बी.मोहन जी के व्यक्तित्व या उनकी बहुआयामी रचना शीलता पर लिखना बहुत कठिन है , कि उनकी रचना धर्मिता के किस पहलू पर विस्तार पूर्वक लिखा जाए -  "उनके द्वारा बनाए गए कविता पोस्टरों के बारे में लिखा जाए या बनाए गए व्यंग्य चित्रों पर , उत्तराखण्ड की ज्वलन्त समस्याओं यथा पलायन, यहां की विलुप्त होती संस्कृति को समय-समय पर अपनी चित्रकारी व कोलाजों के  माध्यम से उजागर करने पर लिखा जाए या फिर यहां की लोक संस्कृति के प्रचार-प्रसार पर , उनके द्वारा बनाए  गए रेखाचित्रों पर लिखा जाए  या फिर उनके द्वारा बनाए गए अनगिनत साहित्यकारों की पुस्तकों के मुखपृष्ठों अर्थात पुस्तक आवरणों पर , उनके पेपरमैसी के काम पर लिखा जाए या फिर बनाए गए मुखौटों पर  , उनके साहित्य प्रेम पर लिखा जाए या फिर उनके कवित्व पहलू पर , उनके द्वारा संकलित/संग्रहित किए गए बहुत पहले बंद पड़े पत्र-पत्रिकाओं के शुरुआती अंको ,दुर्लभ रचनाओं और दुर्लभ पुस्तकों पर या  फिर दुर्लभ पुस्तकों व रचनाओं को अपनी चित्रकारी या कला से नया कलेवर देने पर  , या फिर उनके गढ़वाली भाषा- साहित्य के  संरक्षण एंव प्रचार-प्रसार में योगदान देने पर लिखा जाए | " उनके बारे में एक पूरी पुस्तक भी लिखी जाए तो शायद कम पड़ेगी | 
          बी.मोहन जी की जिस बिधा या प्रतिभा से सभी सबसे ज्यादा परिचित थे वो है कवियों की कविताओं पर उनके द्वारा बनाए गए   "कविता पोस्टर "  |  उत्तराखण्ड में इस विधा को बी.मोहन नेगी ने एक ऊंचाई प्रदान की |    उन्होंने  गढ़वाली, कुमांउनी,जौनसारी ,रवांल्टी ,नेपाली के अलावा  देश- दुनिया के अन्य कवियों की कविताओं पर कविता पोस्टर बनाए | उन्होंने देश-दुनिया के न जाने कितने कवियों की कविताओं को अपनी रंग-लेखनी के माध्यम से यानि चित्रकारी के माध्यम से एक बड़ा फलक दिया | यह मेरा भी सौभाग्य है कि बी.मोहन जी ने मेरी  भी पांच- छह छोटी कविताओं पर कविता पोस्टर बनाकर मुझे कृतार्थ किया | उन्होंने मेरी कविताओं पर बनाए गए कविता पोस्टरों को पत्र-पत्रिकाओं में छपने हेतु स्वंय  भेज दिया था  और साथ ही मुझे भी डाक से बनाए गए कविता पोस्टर भेज दिए थे , ऐसी थी बी.मोहन जी की सरलता, सहजता |
          श्री नरेन्द्र कठैत जी द्वारा कई हिन्दी कवियों की कविताओं के लगभग 500 गढ़वाली अनुवाद  किए गए हैं और इन गढ़वाली अनुवादों में से  बी0 मोहन जी ने लगभग 200 अनुवादों पर   रेखांकन किया यानि कविता पोस्टर बनाए | यह जुगलबंदी बहुत चर्चित रही है | नरेन्द्र कठैत जी द्वारा हिमवंत कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल जी की  गढ़वाली अनुवादित लगभग 70 -72 कविताओं पर   बी.मोहन जी ने कविता पोस्टर पोस्टर बनाए  और इन सहित चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की रचनाओं पर उन्होंने लगभग 100  कविता पोस्टर बनाए |
        उत्तराखण्ड की  भाषाओं के कविता पोस्टरों की जगह- जगह प्रदर्शनी लगाकर इसके माध्यम से उन्होंने यहां भाषा आन्दोलन में भी सक्रिय व अग्रणीय भूमिका निभाई | उनके बनाए गए कविता पोस्टरों से गढ़वाली-कुमांउनी भाषाओं का खूब प्रचार-प्रसार हुआ ,क्योंकि कविता पोस्टरों को देखकर लोग कवि की पूरी कविता जरूर पढ़ते | अब कई लोगों ने उन से प्रेरित होकर चित्र कला और कविता पोस्टर को अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है  , जिनमें अतुल गुसांईं "जाखी " , दीपक नेगी , आशीष नेगी आदि प्रमुख हैं |
         बी.मोहन जी ने लगभग सौ पुस्तकों व पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ यानि पुस्तक आवरण/कवर पेज बनाए हैं | मेरी चारों प्रकाशित गढ़वाली पुस्तकों के मुख पृष्ठ उन्हीं के द्वारा बनाए गए हैं | मेरे निजी संकलन में लगभग 35 पुस्तकें  ऐसी हैं जिनके मुख पृष्ठ बी.मोहन जी द्वारा बनाए गए हैं | उनके द्वारा सबसे पहला मुख पृष्ठ गढ़ गौरव श्रद्धेय नरेन्द्र सिंह नेगी जी की पुस्तक "खुचकण्डी " के लिए बनाया गया था | प्रसिद्ध साहित्यकार श्री नरेन्द्र कठैत जी की प्रकाशित सभी 14 पुस्तकों के मुखपृष्ठ   बी.मोहन जी द्वारा ही बनाए गए हैं |
              मेरा  बी.मोहन जी से आमने-सामने परिचय सन् 2008 में श्री विमल नेगी जी के सम्पादकत्व में प्रकाशित होने वाले गढ़वाली पाक्षिक " उत्तराखण्ड खबरसार" के पौड़ी अवस्थित कार्यालय में हुआ था | बाद में पौड़ी ,श्रीनगर रोड़ के नीचे उनके निवास पर भी कई बार जाने का मौका मिला | उनके निवास पर जाने पर उनकी कलाकृति या रचना धर्मिता व साहित्य प्रेम उनके निवास के प्रवेश द्वार  पर ही दिख जाता है | उनके हाथों से बहुत सुन्दर ढंग से लिखी हुईं तारादत्त गैरोला द्वारा रचित "सदेई " की ये पंक्तियां - " हे ऊंची डांड्यो तुम निसी ह्वावा "  गेट के सामने याने प्रवेश द्वार के अन्दर  की दाईं तरफ वाली दीवार पर लिखी हुईं हैं |
        गढ़वाली भाषा-साहित्य की दुर्लभ और पुरानी पुस्तकों व रचनाओं ,बहुत पहले बंद हो चुके अखबारों के पहले अंको का उन्होंने संग्रह किया ,उन्हें सहेज कर रखा | साथ ही अपनी चित्रकारी व रेखांकन से कई दुर्लभ रचनाओं को नया कलेवर देकर प्रचार-प्रसार करने के साथ ही कई दुर्लभ रचनाअों को लुप्त होने से बचाया |
       सन्  2013 में  गढ़वाली गद्य की पुस्तक "गढ़वाली भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा " ( सन 2014 में प्रकाशित) लेखन के दौरान  जब कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां जुटाने मैं उनके आवास पर गया तो उन्होंने मुझे भीमराज सिंह कठैत द्वारा लिखित गढ़वाली उपन्यास "शेरू " की फोटो स्टेट व बाइंड की हुई  प्रति भेंट की | इस उपन्यास की प्रतियां उन्होंने स्वयं फोटो स्टेट की थीं एवं स्वयं बाइंड करके कई साहित्यकाराें को मुफ्त में भेंट की थी | गढ़वाली साहित्य की  पहली  गढ़वाली कथा "गढ़वाळि ठाठ " ( सदानन्द कुकरेती जी द्वारा लिखित) जोकि सन् 1913 में "विशाल कीर्ति" मासिक पत्र में प्रकाशित हुई थी, उस कथा का आधा भाग मैंने बी0मोहन जी के घर में उनके नये-पुराने गढ़वाली साहित्य के संकलन में शामिल "विशाल कीर्ति " के "अगस्त-सितम्बर-अक्टूबर, सन् 1913" के अंक में स्वयं देखा व पढ़ा | उसका उद्धरण /संदर्भ मैंने अपनी पुस्तक में भी दिया है  | ऐसे ही अनगिनत दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं एवं  पुस्तकों  का उन्होंने रख रखाव किया था |
          बी.मोहन जी के संकलन में  मैंने  गढ़वाली भाषा में छपे हुए पॉम्पलेट/पर्चे, पोस्टर ,शादी के कार्ड ,निमंत्रण पत्र देखे जिनमें से कछ-कुछ का जिक्र भी मैंने अपनी पुस्तक (गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा ,सन् 2014 में प्रकाशित)में किया हुआ है |  गढ़वाली भाषा-साहित्य में व्यंग्य चित्रों की शुरुवात भी बी.मोहन जी ने ही की थी |
         उनकी सहजता व सरलता ऐसी थी कि वे सभी के साथ एक जैसा व्यवहार रखते थे -  चाहे कोई वरिष्ठ साहित्यकार हो या नया लेखक /कवि | अपने मजाकिया अंदाज में बी0 मोहन जी नए कवि एवं लेखकों को गम्भीर सीख दे जाते थे | जून 2015 में  जब वे श्रीनगर रेनबो पब्लिक स्कूल के पास एक कोचिंग सैंटर में बच्चों को "पेपरमेसी " सम्बन्धी जानकारी देने आए थे तो उन्होंने वहां पर मुझे भी फोन करके बुला लिया | साथ ही पौड़ी में गढ़वाली कथाकार श्री महेशानन्द जी के एक कथा संग्रह "डडवार" के लोकार्पण अवसर पर बी0मोहन जी के साथ मंच पर बैठने का सौभाग्य  प्राप्त हुआ था |  वे   क्षण भी मेरे लिए अदभुद थे | वास्तव में  बी0मोहन जी एक निष्काम कर्मयोगी , असाधारण प्रतिभा के धनी परन्तु सहज-सरल व संवेदनशील  व्यक्ति थे |    
      उनके अवसान से गढ़वाली भाषा -साहित्य जगत एंव रंग-लेखन /चित्रकला जगत में जो खालीपन आया है उसे भरना फिलहाल बहुत मुश्किल है |  सुकृत्यों के लिए जिनका नाम , यश और कीर्ति होती है ,वे सदैव जीवित रहते हैं | उनके द्वारा बनाए गए  कविता -पोस्टरों , पुस्तकों के बनाए गए मुख पृष्ठों, कोलाजों , रेखांकनों  के रूप में बी.मोहन जी  सदैव जीवित रहेंगे | गढ़वाली भाषा- साहित्य की विकास यात्रा में उनके अतुलनीय एवं अमूल्य योगदान को सदैव याद किया जाएगा |इस महान विभूति को विनम्र श्रद्धांजलि एंव श्रद्धा सुमन अर्पित!

  (नोट - यह आलेख वरिष्ठ गढ़वाली साहित्यकार श्री नरेन्द्र कठैत द्वारा  बी.मोहन नेगी जी पर सम्पादित स्मृति ग्रंथ * सृजन विशेष एवं स्मृति शेष* मे प्रकाशित है | )

© संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल  |

  

   

Monday, October 21, 2019

आलेख - **भारत में आम जन जीवन की एक आदर्श स्तिथि * * © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

आलेख- *भारत में आम जनजीवन की एक आदर्श स्तिथि *
                  
            © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |
    
         यहां पर अपने देश में  सभी के जीवन की आदर्श स्तिथि के बारे में कुछ लिखने की शुरुआत सभी लोगों की मँगल कामना हेतु मैं अपनी ही गढ़वाली रचना की दो पंक्तियों से करता हूं -

**ना भूखू रौवु ना तीसू क्वी ,ना नांगू ना रूदों रुफड़ाणू क्वी ,
मेरी जन्मभूमि हे भारत माता ! गौ-गँगा माता ईं धरती मा**
        
       जब हम जिंदगी के एक आदर्श स्तिथि की बात करते हैं तो सोच-विचार करना लाजमी है |  हर एक हाथ को काम यानि रोजगार ,सभी के लिए शिक्षा ,सबके लिए स्वास्थ्य सुविधा , सबके लिए अच्छा सा  घर (छोटा हो या बड़ा ,  ये प्रश्न नहीं ),सबकी सुरक्षा , शांति और साथ-साथ कुछ उम्मीदें |
         हमारे देश ने  विज्ञान ,टेक्नोलॉजी एवं औद्योगिकीकरण में काफी उपलब्धियां हासिल कर ली हैं ,परन्तु अभी भी कई चुनौतियां शेष हैं |  हर किसी की जुबान पर आज *विकास* शब्द है और देश से लेकर राज्य तक ,शहर से लेकर गाँव तक विकास की चर्चा होती है | साथ ही इस शब्द के साथ उम्मीदें जग रही हैं और उम्मीदें बढ़ रही हैं | इस दिशा में पूरे देश में प्रयास हो रहे हैं  और देश में विकास कुछ हद तक हो भी रहा है ,परन्तु सभी के सपने साकार होने में वक्त लग सकता है | देश के प्रत्येक नागरिक को अपने सपनों में मानवीयता एवं संवेदनाओं को भी जगह देने की आवश्यकता है और साथ ही  प्रत्येक नागरिक द्वारा राष्ट्र की मजबूती के लिए नि:स्वार्थ भाव से योगदान देने की आवश्यकता है |
       यह भी सोचना आवश्यक है कि -अपने देश में विभिन्न वर्गों के  क्या सभी परिवारों में विकास हो रहा होगा ? क्या सभी लोगों की सोच में परिवर्तन हो रहा है ? क्या  पूरे देश, हर राज्य , हर शहर एवं घर-गाँवों में महिलाओं की स्तिथि वास्तव में बेहतर हो चुकी है? क्या देश में अभी भी सभी जगह स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो पा रही हैं?
         यह माना जा रहा है कि  भारत एक सबसे युवा देश है  और युवा शक्ति हमारे देश की उम्मीद है | परन्तु नई पीढ़ी के प्रति उत्तरदायित्व भी बहुत हैं |  जो समाज अपनी नई पीढ़ी के प्रति उत्तरदा़यित्वों का सही ढंग से निर्वाह नहीं करेगा तो उस समाज की गतिशीलता कम होती जाएगी और वह समाज  पिछड़ सकता है  | आज के समय में शिक्षा की सर्वांगीणता, गुणवत्ता एवं उपयोगिता बढ़ाने की आवश्यकता  है | नई पीढ़ी को पथभ्रष्ट होने से बचाना होगा और उसको अपनी जड़ों से जोड़ना भी आवश्यक है |
       आज हमारे देश में शिक्षा का ग्राफ काफी बढ़ा है | परन्तु सामने यह सवाल भी खड़ा है कि जो अपनी शिक्षा पूर्ण कर चुके हैं ,क्या उन्हें काम मिल गया है? रोजगार मिल गया है? वास्तविकता यह है कि यहां बढती हुई जनसंख्या के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार नहीं बढ़े हैं | सभी सरकारी नौकरी की चाह रखते हैं ,परन्तु यह संभव भी नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी के अवसर मिल जाएं |
        निजी क्षेत्रों में भी रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने की आज आवश्यकता है |उद्योगों को बढ़ाने की बहुत आवश्यकता है , परन्तु अत्यधिक मुनाफाखोरी पर लगाम भी आवश्यक है | देश की प्रगति के लिए सभी को स्वार्थ से किनारा करना आवश्यक है | जिसका भी अपना रोजगार है ,उसे अपने रोजगार हेतु संसाधन उपलब्ध हो सकें यह आवश्यक है | हमारे देश में जो अन्नदाता (किसान) हैं उनकी समस्याओं की ओर भी ध्यान देना उतना ही जरूरी है ,जितनी अन्य बातें |
            कभी गर्मी में लू बहुत जिन्दगियां लील जाती है | अब सर्दी का आगमन हो चुका है , दिसम्बर-जनवरी  माह में ठण्ड का प्रकोप बढ़ जाता है | यह बिडम्बना है कि कई बेघर लोगों के लिए ठण्ड जानलेवा साबित हो जाती है | अत: सभी के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की मांग को नकारा नहीं जा सकता | अतीत से सबक लेना आवश्यक है और सभी का साथ-साथ  चलना आवश्यक है ,उदारवाद की आवश्यकता है |
        अति भौतिकता की चकाचौंध में वस्तुओं को जोड़ते-जोड़ते ,इकट्ठा करते-करते हम लोग ही इक सामान बन गए हैं | ईश्वर तक को इक सामान मान चुके हैं |सांसारिक जंजाल बढ़ चुका है और अति लोभ के कारण हम सभी वस्तुओं का गुलाम बनते जा रहे हैं | वस्तुओं  के अनियंत्रित उपभोग पर नियंत्रण भी आवश्यक है तभी मानसिक शांति आ पाएगी | इस संदर्भ में महाकवि गोपालदास नीरज की ये पंक्तियां याद आती हैं-      

"जितना कम सामान रहेगा
उतना सफर आसान रहेगा |
जितनी भारी गठरी होगी
उतना तू  हैरान रहेगा |
          सब खुशहाल रहें ,सभी आगे बढ़ें , आवो साथ चलें |
      © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

        

Thursday, October 10, 2019

क्षणिका .."नेता " - © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल

               " नेता "

चुनौ का टैम पर -
बसगळ्या मिंढ़का सि ऐ जांदन
चिफळि गिच्ची कैकि
दिन मा गैणा दिखै जांदन
अर ! जन्नि यों तैं तोलो
तन्नि उतड़फळि मारि जांदिन  |
 
     *एक लपाग* बटि © संदीप रावत,न्यू डांग ,
                       श्रीनगर गढ़वाल  |

Monday, September 30, 2019

" समोदर अर पंद्यारु " ©संदीप रावत ,न्यू डांग,श्रीनगर गढ़वाल |

"समोदर अर पंद्यारु "

समोदर -
दिखेणौ बड़ो ,
पर,रूखो अर खारो  |
पंद्यारु -
छ्वटु सि
अर छाळो ,
पण ! न झणि
कतगौं कि
तीस बुझालो |
      
सर्वाधिकार © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

Thursday, September 19, 2019

उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं के संदर्भ में आलेख- © संदीप रावत ,न्यू डांग,श्रीनगर गढ़वाल

*उत्तराखण्ड में लोकभाषाओं पर  संकट *

(सर्वाधिकार सुरक्षित ©संदीप रावत,श्रीनगर गढ़वाल )
        किसी भी क्षेत्र या समाज की भाषा उस सामाजिक क्षेत्र की सभ्यता,संस्कृति,रीति-रिवाज और जीवन दर्शन की परिचायिका होती है। जब किसी लोकभाषा पर संकट की बात की जाती है  तो सीधा-सीधा उस लोकभाषा से जुड़ी हुई संस्कृति पर संकट की बात भी होती है क्योंकि भाषा ही संस्कृति, को अभिव्यक्त करती है। किसी भी बोली- भाषा के खत्म होने से  एक खास संस्कृति भी खत्म हो जाती है। किसी भी भाषा पर संकट का अर्थ है कि वह भाषा प्रचलन में नहीं आ रही है और उस भाषा को बोलने वाले लोगों की संख्या कम होती जा रही है अर्थात उस भाषा को लोग प्रयोग नहीं कर रहे हैं। हमारी दुधबोली या लोकभाषा हमारी पहचान बताती है।
      यूनेस्को ने सन् 2009 में जो सर्वे किया था और उसे ‘एटलस आॅफ वर्ल्ड-लैंग्वेजेज इन डेंजर ’ के नाम से छापा था | उसमें उत्तराखण्ड की प्रमुख भाषाओं गढ़वाली-कुमाउंनी को भी संकट में बताया गया था। आज वैश्वीकरण के दौर में जब सब कुछ बदल रहा है तो हम सभी अपनी लोकभाषा/ मातृभाषा से भी विमुख होते जा रहे हैं जिससे हमारी लोकभाषाओं पर भी वास्तव में संकट आ रहा है। इसके कारण हमारी संस्कृति भी खत्म होती जा रही है और जो हमारी एक अलग पहचान है वह भी खत्म होती जा रही है।
      आज वैश्वीकरण के दौर में सभी जगह  बदलाव होना लाजमी है। परन्तु इस  बदलाव के दौर में भी अपनी पहचान को बनाए रखना,अपनी  बोली-भाषा का प्रयोग करना और उसको सम्मान देना  बहुत आवश्यक है। आज इस पढ़े- लिखे जमाने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर अपनी लोकभाषा, अपनी संस्कृति व परम्पराओं को और अच्छा बनाने की आवश्यकता है।  गढ़वाली,कुमाउंनी, जौनसारी के साथ ही इनकी उप बोलियों के लिए भी काम करने की व संरक्षण आवश्यकता है। हर बोली हमारी विशिष्ट पहचान रखती है । आज जन- जातियों पर भी अपनी पहचान खोने का खतरा मंडरा रहा है।

*उत्तराखण्ड में लोकभाषाओं पर जो थोड़ा सा  संकट दिखाई देता है उसके कारण एंव उनके समाधान हेतु सुझाव*--

(1) *अपनी मातृभाषा या लोकभाषा के प्रति लोगों की गलत सोच या गलत धारणा* --
      यहां लोकभाषाओं के संकट में होने के पीछे जो सबसे बडा कारण है वह यह है कि हम लोग आज  अपनी मातृभाषा या लोकभाषा को और देश या दुनिया की और भाषाओं की तुलना में हीन समझ रहे हैं। हम लोग अपनी लोकभाषा का सम्मान नहीं कर पा रहे हैं |   बिडम्बना तो यह है कि यहां स्कूलों  मे भाषा पढ़ते-पढ़ाते वक्त जाने अनजाने बच्चों को यह महसूस होता है कि बोली और भाषा दोनों अलग-अलग हैं और वह सोचते हैं कि हम घर गांव मे जो कहतें हैं  वह हमारी बोली है, जिसकी कोई लिपि, व्याकरण या राजकीय मान्यता नहीं। वैसे भी पढे़-लिखे लोग भी ज्यादातर यहीं सोच रखते हैं। भाषा की लिपि होती है, शब्दकोश, व्याकरण होता है, लिखित साहित्य होता है, राजकीय मान्यता होती हैै और न जाने क्या- क्या बताया जाता है पढ़ते-पढ़ाते वक्त। ऐसे बीज यहां के लोगों में बचपन  से ही पड जाते  हैं  कि- हमारी मातृभाषा/लोकभाषा
भाषाएं नही  हैं,  और तब फिर उम्रभर वह धारणा मन में बन जाती है। यही हम लोगों के साथ भी हुआ और नई पीढी के साथ भी अब यही हो रहा है। यहीं से शुरुआत होती है अपनी मातृभाषा के अवहेलना की और इस तरह अपने ही घर मे, क्षेत्र में अपनों के द्वारा ही मातृभाषा को बाहर का रास्ता  दिखा दिया
जाता है।
        वास्तव में हमारी लोकभाषाएं दुनिया की श्रेष्ठतम भाषाओं में शामिल हैं। इनकी शब्द सम्पदा व  अभिव्यक्ति की क्षमता  उच्चकोटि की है। गढ़वाली- कुमाउंनी का अपना अथाह शब्द भण्डार /शब्दकोश,अपना समृद्ध व्यारकरण, समृद्ध और उच्चकोटि का लिखित साहित्य है। उत्तराखण्ड के लिए तो यह गर्व की बात है कि-  भारत में जिन 24 भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है उनमें गढ़वाली और कुमांउनी भी शामिल हैं |  साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने इन भाषाआें  को मान्यता दी है और ये भाषाएं किसी भी भाषा के सभी मानदण्डों पर
खरी उतरती हैं  यह सि़द्ध हो चुका है।
        ये भाषाएं पूर्व मे यहां की राजभाषाएं यानि राज काज की भाषाएं रह चुकी हैं। गढ़वाली-कुमांउनी भाषा की लिपि भी आठवीं अनुसूची में शामिल अन्य कई भाषाओं की तरह देवनागरी है। भारतीय संविधान में दर्ज संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मैथिली आदि भाषाओं की एक ही लिपि है-देवनागरी, और फिर भी ये सब पृथक भाषाएं हैं। इसी लिपि में यदि गढ़वाली-कुमांउनी भी लिखी जाती हैं  तो लिपि के आधार पर इन भाषाओं को पृथक भाषा न मानना तर्कसंगत नहीं है।
      कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हमारे लिये राष्ट्रीय,अन्तराष्ट्रीय भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है परन्तु इस कारण अपनी लोक भाषाओं को हीन दृष्टि से देखना या उनको भूल जाना कोई सम्मान जनक स्थिति नहीं है। शिक्षित व आधुनिक समाज को अपनी लोकभाषओं के प्रति उपेक्षा भाव त्यागना ही होगा, तभी जाकर हमारी लोकभाषाएं जीवित रहेंगी। आम लोगो की अपनी लोक भाषा/ मातृभाषा समबन्धी इस सोच या मिथक को तोड़ना आवश्यक है कि-  हमारी लोकभाषाएं भाषाएं नही हैं  या समृद्ध और   परिवक्व नही हैं।

(2 ) *लोक भाषाओं का व्यवहार में न आ पाना* --
       हमारी लोकभाषाएं व्यवहार में नहीं आ पा रही हैं। भाषा लिखने से पहले बोलने की चीज होती है। लोक भाषा पहले व्यवहार में आनी चाहिए क्योंकि किसी भी भाषा का व्यावहारिक पक्ष महत्वपूर्ण होता है । अपने व्यवहार में, रोजमर्रा के क्रियाकलापों में, अपने घर-परिवार में, अपने आपस में , अपने कार्य क्षेत्र में भी हम आपस मे अपनी लोकभाषा मे बात कर सकते हैं  । अगर हमें अपनी बोली-भाषा को बचाना है तो आज हमारे लिए यह अति आवश्यक है। चाहे हम किसी भी पद पर हों, जहां भी हों , कितने भी पढे लिखे क्यो ना हों,दुनिया की अन्य कोई भी भाषा सीख जाएं परन्तु हमें अपनी बोली-भाषा में बात करने मे शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए। इसकी शुरुआत हमें अपने घर से करनी होगी। नई पीढ़ी को अपनी मातृभाषा /लोकभाषा मे बात करने हेतु ,इसे पढ़ने- लिखने हेतु प्रेरित करना होगा। अपनी लोकभाषाओं पर गर्व करते हुए उस जीवन, अपने व्यवहार का अंग बनाकर अपनी भावी पीढ़ी को सौंपने की आज आवश्यकता है।
     हम लोग शादी-ब्याह के कार्ड-निमंत्रण पत्र अपनी बोली-भाषा में छपवा सकते है। जैसे कि पंजाब, असम, केरल,महाराष्ट्र या अन्य राज्यों में सड़कों के पिलरों पर, साइनबोर्डो पर, दफ्तरों कि तख्तियों, मोटर-गाड़ियों पर, दुकानों पर वहां की बोली-भाषा के साथ हिन्दी या अंग्रेजी में लिखा रहता है ऐसे ही यहां उत्तराखण्ड में भी यहां की लोकभाषाओं/ गढ़वाली-कुमाउंनी में भी लिखा होना चाहिए। यह काम तो यहां के आम लोग भी कर सकते हैं। इससेभी हमारी बोली-भाषाओं (लोकभाषाओं) का महत्व अपने आप बढ़ जाएगा। वैसे भी तीर्थाटन और पर्यटन के कारण अन्य राज्यों व अन्य देशों के बहुत सारे लोगों का आना-जाना लगा रहता है,तो वो लोग भी  तो देखेंगे कि बोर्डो पर,दुकानों में, सड़कों के किनारे पिल्लरौं पर हिन्दी या अंग्रेजी के साथ किस भाषा में लिखा हुआ है। यहां के नीति निर्धारकों और आम लोगों को भी इस संदर्भ में कुछ सोचना और करना होगा।

(3 )* पाठ्यक्रम में लोकभाषाओं का शामिल न होना या लोकभाषाओं का औपचारिक शिक्षा  का माध्यम न होना* ------      
      संविधान की धारा 350A में शिक्षा के प्राथमिक स्तर से मातृभाषा में पठन-पाठन के अधिकार का उल्लेख है जिसमें यह जिक्र किया गया है कि हर राज्य या स्थानीय शासन, बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने का उचित प्रबन्ध करे। अभी तक उत्तराखण्ड में संविधान की धारा 350A के कोई काम नहीं हुआ। उत्तराखण्ड राज्य बनने के इतने सालों बाद भी यहां की सरकारों, नीति निर्धारकों का ध्यान यहां  की लोकभाषाओं की ओर नहीं गया। यह बड़ी बिडम्बना है कि आज तक भी यहां की लोकभाषाओं का पाठयक्रम मे कोई स्थान नहीं  है अर्थात यह औपचारिक शिक्षा का माध्यम  अभी तक नही बन पाई हैं |
     हमारी लोकभाषाएं अभिव्यक्ति की पूरी क्षमता रखती हैं  और इन भाषाओं में क्रमिक पाठ्यक्रम बनने की सामर्थ्य भी है। यह सामर्थ्य  तभी सर्वमान्य स्थिति में आयेगा जब उसे ऐसा बनने का मौका दिया जायेगा । यह अवसर यहां की सरकार ही दे सकती है , नीति निर्धारक दे सकते हैं। यहां व्यावहारिक तौर
पर हिन्दी व अंग्रजी की तरह सभी स्कूलों मे लोकभाषाएं अनिवार्य रूप से पढाई जानी चाहिए। पाठ्यक्रम मे लोकभाषा/मातृभाषा शामिल होनी चाहिए।
      भारत के जो बड़े-बड़े शिक्षाविद हुए हैं- महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, डाॅ0सर्वपल्ली राधाकृष्णनन् , डाॅ0 जाकिर हुसैन जैसे महापुरूषों ने भी शिक्षा हेतु  मातृभाषा पर भी  जोर दिया था। भारत जैसे देश में लोग अंग्रेजी का कितना भी पक्ष ले लें , अंग्रेजी की वकालात कर लें , सारी दुनिया में मातृभाषा  का महत्व जग जाहिर है। समय समय  पर बनी शिक्षा नीतियों में भी शिक्षा में बच्चों की मातृभाषा को शामिल किए जाने पर जोर दिया गया  परन्तु फिर भी कुछ भौत ज्यादा नहीं हो पाया इस मामले में सारे देश में, और उत्तराखण्ड में तो बिल्कुल कुछ भी नही हुआ इस मामले में।
      वास्तविकता तो यह भी है कि क्षेत्रीय भाषाओं /मातृभाषाआें का क्षेत्र के विकास में भी बड़ी भूमिका रहती है। वृहद स्तर पर यह बात चीन, जापान, रूस, फ्रांस जैसे कई देशों के उदाहरणों से सिद्ध हो जाती है जोकि अपनी भाषा के बलबूते पर विकास के शिखर तक पहुंचे हैं | इन देशाें में शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से ही अपनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। अपने ही देश मे पूर्वोत्तर राज्यों मे वहां की भाषाएं प्राथमिक स्तर के साथ साथ माध्यमिक स्तर व कहीं कहीं स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाई जा रही है। असम में असमी, मिजोरम मे मिजो, बोडो क्षेत्र मे बोडो, त्रिपुरा मे कोकबराक ,मेघालय मे खासी व गारो, अरूणाचल प्रदेश मे आंकि भाषा वहां के पाठयक्रम के सम्मिलित हैं। इसी तरह गोवा मे  कोंकणी ,जम्मू क्षेत्र में डोगरी भाषा, कश्मीरी क्षेत्र मे कश्मीरी भाषा, कर्नाटक मे कन्नड,केरल में मलयालम,  तमिलनाडु मे तमिल,आंध्र प्रदेश  मे तेलुगु ,महाराष्ट्र मे मराठी, गुजरात मे गुजराती,पंजाब मे पंजाबी/ गरूमुखी  पढा़ई जा रही है।
कहने का तात्पर्य यह है कि बड़े राज्यों के साथ-साथ छोटे राज्य अपनी-अपनी मातृभाषाओं को सम्मान दिया है,अनिवार्य रूप से प्राथमिक स्तर से पाठ्यक्रम मे सम्मलित किया है।
       इन तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि उत्तराखण्ड मे प्राथमिक स्तर से ही मातृभाषा /लोकभाषा एक अनिवार्य विषय के रूप में हिन्दी व अंग्रेजी के साथ पढाया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए । इसके लिए पाठ्यक्रम तय होना
चाहिए।  यहां की लोकभाषाओं को यहां  जरूर पढ़ाया जाना चाहिए, यहां उनको महत्व दिया जाना आवश्यक है। आज समय की भी मांग है और व्यावहारिक भी कि बच्चों को राज्य स्तर या क्षे़त्रीय स्तर पर उनकी मातृभाषा को पढ़ाया-लिखाया जाय। इससे आम लोगों की यह गलत धारणा भी खत्म हो जाएगी कि - हमारी लोकभाषाएं भाषा नहीं हैं।

(4) *लोक कलाओं और लोकभाषाओं का रोजगार से सम्बन्ध न होना *--
   किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था या आर्थिकी कमजोर होने से भाषा और संस्कृति पर भी असर पड़ता है। आज लोक कलाओं और लोकभाषाओं को रोजगार से जोड़ने की आवश्यकता है और इसके लिए एक ठोस नीति बनानी आवश्यक है |लोकभाषाओं मे रोजगार देने की क्षमता का विकास मे करना आवश्यक है क्योंकि जो भाषा सामाजिक सम्मान और मान्यता नहीं दिया पाती वह भाषा पिछड जाती है। उर्दू शिक्षकों की तरह उत्तराखंण्ड मे लोकभाषा शिक्षकों की नियुक्ति होनी चाहिए।
      हमारे शिल्पकार भाई-बन्धुओं  औवजी, धामी, जागरी, बेड़ा-बद्दियों का लोकभाषा-लोकसाहित्य के प्रचार-प्रसार में, लोकसाहित्य को समृद्ध करने में  बहुत बड़ा योगदान है। ये वास्तव में हमारे लोकसाहित्य की वाचिक परम्परा के साहित्यकार हैं। इनकी  आम लोगों द्वारा उपेक्षा की वजह से इन्होंने अपना पारम्परिक कार्य छोड़ा तो इसका असर यहां की लोकभाषाओं और लोक साहित्य पर भी पड़ा और पड़ रहा है।       लोक साहित्य पहले  आम लोक या आम लोगों के बीच फैला था परन्तु आज जब लोक साहित्य, लोक से विलुप्त होता जा रहा है तो हमारी लोकभाषाओं के शब्द भी विलुप्त होते जा रहे हैं। इससे लोकभाषाओं का मौलिक स्वरूप खत्म होता जा रहा है। जब हमारी लोकपरम्पराएं खत्म हो रही हैं तो इनसे जुड़े शब्द भी खत्म  हो रहे हैं।

(5) *लोकभाषाओं को संवैधानिक मान्यता न मिल पाना या राज्य में राजभाषा/सहभाषा के रूप मे न होना * --
      लम्बे समय से किसी क्षेत्र में जो बोली-भाषा समाज में चलन में हो और उस क्षेत्र का नाम वहां बोली जाने वाली भाषा के नाम पर हो तो,उस क्षेत्र या राज्य की सरकार भी उस भाषा को प्रादेशिक भाषा की मान्यता देकर अपने समाज को सम्मानित करती है। परन्तु उत्तराखण्ड में ऐसा अभी तक नही हो पाया है। संविधान की धारा 347 में यह प्राविधान है कि किसी भी राज्य की एकमुश्त  जनसंख्या जिस भाषा का प्रयोग करती है तो वह राज्य अपनी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने हेतु कह सकती है।
      संविधान की आठवीं अनुसूची मेें जो भाषा शामिल होती है उस भाषा को बोलने वाले राज्य और राज्य से बाहर बसे, राज्य कि कुल जनसंख्या का लगभग 60 परसैंट  लोग होने चाहिए तब जाकर वो भाषा  राज्य की सरकारी यानि राजकाज की भाषा बन सकती है। जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड की जनसंख्या लगभग 1 करोड़ 1 लाख के आसपास है और गढ़वाळि-कुमांउनी भाषाओं के बोलने वाले भी उत्तराखण्ड और उत्तराखण्ड से बाहर लगभग 60 प्रतिशत से भी जादा हैं। जब ये दोनो भाषाएं  भाषा के सभी मान-दण्डों पर खरी उतरतीं हैं तो फिर दिक्कत कहां आ रही है संवैधानिक मान्यता मे? कहीं न कहीं इस बात के लिए राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के साथ-साथ यहां का आम आदमी भी तो जिम्मेदार है।
       पूर्वोत्तर राज्यों में मिजोरम, मेघालय,त्रिपुरा व अरुणाचल प्रदेश की कोई भी भाषा संविधान की आठवीं सूची में शामिल नहीं है। परन्तु मिजोरम में ‘मिजो’, मेघालय में ‘खासी’ व ‘गारो’ भाषा, त्रिपुरा में ‘कोकबराक’ भाषा को वहां दूसरी राजभाषा यानि आधिकारिक सहभाषा का दर्जा प्राप्त है और इन
भाषाओं में वहां शिक्षा दी जाती है। कुल मिलाकर बात यह है कि पूर्वोत्तर जैसे इन पिछड़े राज्यों में जो काम वहां की लोकभाषाओं के लिये हो रहे हैं क्या वो प्रयास यहां नहीं हो सकते। उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं को राजभाषा का दर्जा देने या कम से कम द्वितीय राजभाषा का दर्जा तो यहां की सरकार दे ही सकती है। अब समय आ गया है कि यहां की लोकभाषाओं को राज्य की राज्य भाषा घोषित किया जाना चाहिए या कम से कम इनको  द्वितीय राजभाषा का दर्जा
दिया जाना चाहिए।

(6) * लोकभाषा साहित्य के प्रचार-प्रसार में कमी व आम लोगों का लोकभाषा साहित्य में रुचि न लेना*---
      यहां लोकभाषाओं के लेखक तो निरन्तर  साहित्य रच रहे हैं , मेहनत कर रहे हैं,  अपनी मातृभाषा मे साहित्य छपवा  रहे हैं, साहित्य की हर विधा में गढवाळि कुमाउंनी  में साहित्य रचा जा रहा है परन्तु  यहां ही गढवाळि-कुमाउंनी साहित्य को पढ़ने वाले पाठक  नहीं मिल पा रहे हैं । जो लिख रहे हैं  वही पाठक भी हैं । यहां  का आम आदमी तो  बिलकुल भी रुचि नहीं ले रहा इस मामले में। हां, इण्टरनेट और वट्स अप या सोशल मीडिया के इस नए  दौर  में जरूर गढवाळि- कुमाउंनी मे मेसैज लिखे जा रहे हैं , पढ़े जा रहे हैं। पर जब लोकभाषा साहित्य याने गढवाळि- कुमाउंनी साहित्य लिखित रूप या मुद्रित रूप याने पत्र- पत्रिका या किताब के रूप मे  बाजार
मे आती है तो आम लोग वैसे रूचि नहीं  लेते इस साहित्य को पढ़ने- लिखने में और अपनी लोकभाषाओं मे जैसे लेनी चाहिए। लोकभाषा में छपने वाले समाचार पत्राें  को बढ़ावा देने की भी आज एक आवश्यकता है ।
     दैनिक समाचार पत्रों के माध्यम से लोकभाषाओं का प्रचार प्रसार, लोकभाषा सम्बन्धी गोष्ठियों का आयोजन और लोकभाषा की अनिवार्यता के  महत्व व बात को आम लोगों तक ले जाने की आज बहुत आवश्यकता है।

(7)*लोकभाषा अकादमी* या *गढ़वाली- कुमाउंनी अकादमी की स्थापना न होना*--
      उत्तराखण्ड राज्य बनने के इतने सालों बाद भी यहां लोकभाषा अकादमी की स्थापना नहीं हो पाई जो केवल यहां की लोकभाषाओं के संरक्षरण,संवर्द्धन व प्रोत्साहन के लिये काम कर सके। यहां लोकभाषा अकादमी की स्थापना होनी चाहिए और इस अकादमी की जिम्मेदारी उन लोगों को सौंपी जानी चाहिए जो यहां की लोकभाषाओं/लोक संस्कृति हेतु वास्तव में  धरातल पर काम कर रहे हैं।

(8) *जन प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों द्वारा यहां की लोकभाषाओं रुचि न लेना*---
    अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड राज्य में भी नीति निर्धारक या सरकारें यहां की लोकभाषाओं या मातृभाषाओं को वो सम्मान नहीं दे पाए जिस सम्मान की ये भाषाएं अधिकारी हैं। यहां जन प्रतिनिधि और राजनीतिक दलों ने कभी भी यहां की लोकभाषाओं की बात नहीं की और इनको कोई महत्व नहीं दिया है। अगर जन प्रतिनिधि और राजनीतिक दल भी यहां की लोकभाषाओं के संदर्भ में कुछ सोचते तो अब तक गढ़वाळि-कुमांउनी भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची मेें जो शामिल हो चुकी होतीं। अब उनको भी इस बारे मे सोचना चाहिए।
     आज शिक्षा का माध्यम मातृभाषा न होने के कारण, अपनी लोक भाषाओं के प्रति यहां के ज्यादातर लोगों की गलत मानसिकता या सोच के कारण,व्यवहार में न आने के कारण, गलत सरकारी नीतियाें  के कारण, लोकभाषा व रोजगार में सम्बन्ध न होने के कारण, यहां की लोकभाषाएं व्यवहारिक रूप से कमजोर होती जा रही हैं। जब तक हमारी  लोकभाषाएं /मातृभाषाएं ज्यादा से ज्यादा व्यवहार में नहीं आएंगी, शिक्षा का माध्यम प्राथमिक स्तर से ही यहां  मातृभाषा नहीं होगी तब तक लोकभाषाओं पर संकट बना रहेगा।
        उत्तराखण्ड राज्य बने हुए 18 साल पूरे  हो गये हैं परन्तु गढ़वाली-कमाउंनी भाषाओं को संवैधानिक दर्जा मिलने  वाली बात तो दूर रही, उत्तराखण्ड मे ही इनको सहभाषा यानि दूसरी राजभाषा का दर्जा नहीं मिला,तो क्यों ?ये सोचने वाली बात है। सबसे अहम बात यह है कि आज उत्तराखण्ड आन्दोलन जैसे किसी जबरदस्त भाषाई आन्दोलन की आवश्यकता है। लोकभाषाओं को राजभाषा के रूप मे शामिल करवाने हेतु /प्रतिष्ठित करने हेतु या संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने हेतु हम सभी को अपनी अपनी तर्फ और मिलजुल कर प्रयास करना होगा। मेरा विनम्र विचार है कि यहां की लोकभाषा और लोक संस्कृति समबन्धी सभी संस्थाओ को आम लोगों के साथ मिलकर एक भाषाई आन्दोलन करना होगा, क्याेंकि सरकारी स्तर पर इस हेतु प्रयास अभी तक नगण्य हैं। माना कि एक जन चेतना धीरे-धीरे  फैल रही है पर अब वह वक्त आ गया है कि यहां  के आम लोग भी इन लोक भाषाओं यानि अपनी पहचान के बारे में सोचें।
   * सर्वाधिकार सुरक्षित© संदीप रावत,न्यू डांग ,श्रीनगर  गढ़वाल |
*****************************************नोट - यह आलेख लेखक की गढ़वाली आलेखों के संग्रह की पुस्तक ' लोक का बाना ' में दो  गढ़वाली  निबन्ध/आलेखों के रूप में प्रकाशित है | साथ ही यह 'युगवाणी ,पर्वतांचल आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित है |
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