मेरी प्रकाशित पुस्तकें :-


(1) एक लपाग ( गढ़वाली कविता-गीत संग्रह)- समय साक्ष्य, (2) गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (गढ़वाली भाषा साहित्य का ऐतिहासिक क्रम )-संदर्भ एवं शोधपरक पुस्तक - विन्सर प्रकाशन, (3) लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह )- समय साक्ष्य, (4) उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह )- उत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ


Friday, August 30, 2019

हिन्दी आलेख - ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल देवलगढ़

**ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल देवलगढ़ **
               © संदीप रावत ,न्यू डांग, श्रीनगर  गढ़वाल
   
     देवलगढ़  ऐतिहासिक, पुरातात्विक महत्व रखने के साथ- साथ एक धार्मिक  महत्व भी रखता है  | यह माना जाता है कि कांगड़ा के राजा देवल यहां आये थे,जिन्होंने इसे बसाया था और उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम देवलगढ़ पड़ा |   महाराजा कनकपाल के वंशज, आनन्दपाल (द्वितीय) के पुत्र और पंवार वंशीय सैंतीसवें महाराजा अजयपाल (1493- 1547) लगभग सन् 1512 में चांदपुरगढ़ी से देवलगढ़ आए और यहां अपनी राजधानी बनाई और फिर बाद में  श्रीनगर राजधानी बनाई |  इतिहास साक्षी है कि महाराजा अजयपाल ने जब यहां के गढ़ों को जीतकर एक राज्य बनाया तो " गढ़ों वाला " से उस समय इस राज्य का नाम " गढ़वाल " पड़ा | यह गढ़वाल के प्रसिद्ध 52 गढ़ों मे से एक गढ़ है |
         गढ़ नरेश महाराजा अजयपाल ने नाथ सम्प्रदाय के लोगों की मदद से देवलगढ़ में अपना भवन तैयार किया और उसमें अपनी अराध्य देवी माता राज राजेश्वरी की स्थापना की |ऐसा कहा जाता है कि  जब महाराजा अजयपाल चांदपुर गढ़ी से सुमाड़ी गांव होते हुए देवलगढ़ आए तो रात सुमाड़ी रुके और अगले दिन वहां से सुमाड़ी गांव के लोग मां गौरा देवी की डोली को देवलगढ़ लाऐ |  ऐसा भी कहा जाता है कि - यहां राजा का भवन होने के कारण इसमें आम लोगों को जाने नहीं दिया जाता था और  तब राजा ने आम जनता हेतु मां गौरा देवी का मंदिर बनाया | श्रीनगर से लगभग 20 किमी दूर ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्थल देवलगढ़ में मां गौरा देवी, मां राज राजेश्वरी, भैंरों नाथ, सोम का मांडा आदि प्रसिद्ध हैं |
       पुरातत्वविद्  और इतिहासकार मानते हैं कि "सोम का मांडा "( मांडा अर्थात मंडप) राजा के न्याय की गद्दी थी यानि जहां बैठकर राजा अपराधियों को सजा देता था | इसके बीच में एक खम्बा है | कई लोग यह मानते हैं कि "सोम का मांडा " के इस खम्बे में राजा धन छुपाता था और राजा खाली समय में यहां चौसर खेला करते थे | पुरातत्व विभाग के अनुसार इसे 11- 12 ईसवी में बनाया गया | इस पर जो मंत्र उकेरे गये हैं या जो लिखा गया है, उन्हें अभी तक कोई भी नहीं पढ़ या समझ पाया है, इतिहासकार या जानकार भी नहीं |
           महाराजा अजयपाल ने ही माप तौल हेतु " पाथा " की व्यवस्था की थी ,जिसे "देवली पाथा "या "द्योली पाथा " कहा जाता था | देवलगढ़ में उस समय का शिलालेख जिस पर यह लिखा है --
      " अजैपाल को धर्मपाथो भण्डारी करौं कु "
उस समय यहां गढ़वाली भाषा के प्रचलन को बताता है | महाराजा अजयपाल का नाम नाथ पंथ के साबरी ग्रन्थौं और यहां तक कि स्थानीय जादू-टोनो में "आदिगुरु "या "आदिनाथ "रूप में लिया जाता है नाथ सम्प्रदाय में इनको बाबा अजयपाल के नाम से जाना जाता हैं | साबरी मंत्रो में इस प्रकार जिक्र है -
" श्री राम चन्द्र की आण | राजा अजयपाल की आण |"
           यहां हर वर्ष बैशाखी या बिखोत के  अवसर पर मेला लगता है  | देवलगढ़ के गौरा देवी मंदिर में बैशाखी या बिखोत पर्व पर क्षेत्र की खुशहाली ,मंगलकामना  और मां गौरा को प्रसन्न करने हेतु प्रत्येक वर्ष मां गौरा देवी को मंदिर से बाहर लाया जाता है और झूला झुलाया जाता है | जैसा कि पहले जिक्र हो चुका है कि गौरा देवी सुमाड़ी गांव वालों की देवी मानी जाती है | बिखोत के दिन मां गौरा को झूला झुलाना मुख्य आकर्षण होता है | यह परंपरा सदियों से चली आ रही है | आज भी यहां  मां गौरा देवी को झूला सबसे पहले सुमाड़ी के लोग झुलाते हैं | सुमाड़ी ,बुघाणी, स्वीत, मंदोली, चकोली, भैंसकोट, फरासू, भटोली,मरखोड़ा और आसपास के गांव व क्षेत्र के लोग इस अवसर पर ढोल -दमाऊ के साथ यहां आते हैं |
        माता राज राजेश्वरी मंदिर के सहायक पुजारी बताते हैं कि-" माता राज राजेश्वरी पर्दे में रहती है और यह राजाओं,  उनियालों आदि की आराध्य देवी है | कुछ -कुछ बहुगुणाओं की कुलदेवी भी माता राज राजेश्वरी है | " इसके मुख्य पुजारी उनियाल लोग हैं |
            पुजारी श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल जी के पास देवलगढ़ से सम्बन्धित बहुत सारी वस्तुएं हैं, जिनकी वे प्रदर्शनी लगाते हैं | उनकी प्रदर्शनी में प्राचीन सिक्कों का संकलन, महाराजा अजयपाल के जमाने की तलवारें, बन्ठा ,गेडू, उस समय हलुवा बनाने की कढ़ाई, तांबे का पाथा आदि शामिल होते हैं ,जिनके माध्यम से वह देवलगढ़ की जानकारी लोगों को देते हैं | इस सम्बन्ध में अन्य भी बहुत सारी एवं पुरातन जानकारियां  श्री उनियाल जी के पास हैं |
         देवलगढ़ मे माता राज राजेश्वरी पीठ श्री गौरी व श्री सत्य नाथ पीठ के पश्चिम में केदारखंड में वर्णित "भैरों उड्यार " के पूर्व में चट्टानों पर पांच प्राचीन सुरंगे थी, जिनमें से वर्तमान में  तीन सुरंगे विद्यमान हैं। नाथ सम्प्रदाय के लोगों  से बातचीत करने पर पता लगता है एवं  श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल के अनुसार - प्राचीन समय में  ये सुरंगें नाथ सिद्धों द्वारा अपने शिष्यों या चेलों  की तपस्या हेतु बनाई गयीं थीं । ऐसा माना जाता है कि जब उत्तराखंड में नाथ सम्प्रदाय का बोल बाला चरम पर था, यहां के  हर तबके ,हर जाति के लोग नाथ सम्प्रदाय में आने लगे थे  | उस समय नाथ सम्प्रदाय मे चेला प्रथा थी और चेलों को संस्कारित करने हेतु  इन सुरंगों में तपस्या हेतु  भेजा जाता था  | इनमें जो चेला सिद्धि प्राप्त हो जाता बाद में उसको ही सत्यनाथ की गद्दी का "पीर" घोषित किया जाता था। इतिहासकारों  का मत है कि महाराजा अजयपाल ने  आक्रमणकारियों से स्वयं और प्रजा की रक्षा के लिए इन सुंरगों को बनवाया था।  कालान्तर में गोरख्याणी के समय इन सुरंगों मे छिपकर राज परिवार और प्रजा ने  जान बचाई  थी | ये सुरंगे ऐतिहासिक महत्व की हैं  जहा पर पहुंचना बहुत ही कठिन है । कुछ लोग इनको "पणसुती "भी कहते हैं ।
        कुल मिलाकर देवलगढ़ ऐसा स्थान है जो ऐतिहासिक महत्व रखने के साथ-साथ  पुरातात्विक एंव धार्मिक महत्व रखता है | साथ ही इसे   पर्यटन से भी जोड़ा जा सकता है |
     © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |
नोट- लेखक का यह आलेख "उत्तरजन टुडे " मासिक पत्रिका , निराला उत्तराखण्ड ,शिखर हिमालय हिन्दी पत्र , गढ़वाल सभा ,देहादून की स्मारिका एवं गढ़वाली भाषा में "रंत रैबार " में प्रकाशित है |

     

Tuesday, August 20, 2019

गढ़वाली रचना- " जग्वाळ "( © संदीप रावत ,न्यू डांग,श्रीनगर गढ़वाल)

               " जग्वाळ "

कबि घामै चटकताळ
कबि ऐ  बसग्याळ
कब्बि रडी़नि कूड़ी-पठाळ
रै ग्येनि बस ,ढाळ- पंदाळ
संग्ति रै बिकासै जग्वाळ
पर!
खड़ा ह्वे ग्येनि कतगै सवाल |

© संदीप रावत ('एक लपाग 'बटि )न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

गढ़वाली (सरस्वती )वंदना - द्वी आखरूं कु ज्ञान द्ये ( © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल)

   *द्वी आखरूं कु ज्ञान द्ये (गढ़वाळि सरस्वती वंदना)*
                        
  अज्ञानै अँध्यारी रात मा द्वी आखरूं कू ज्ञान द्ये
   घुली जौ रस बाच मा वीणा कि इन तू तान द्ये |

द्यू जगौ सदभाव कु ,चौतर्फां उदंकार हो
चौतर्फां उदंकार हो ,
अभाव मा तू भाव भ्वरी ,सबका जिकड्यूं प्यार हो
माँ ,सबका जिकड्यूं प्यार हो ,
विद्या-बुद्धि संग भला,विद्या बुद्धि संग भला कर्मों कु मिजान द्ये
घुली जौ रस बाच मा ,वीणा कि इन तू तान द्ये |

सुबाटोम् हिटै सदानि ,जीणा कु तू द्ये सगोर
माँ जीणा कु  तू द्ये सगोर
माया-मोहक हटै जिबाळ ,मन कु खैड़-मैल सोर
माँ ,मन कु खैड़-मैल सोर
शब्दों का ब्रह्म कमल खिल्याँ ,शब्दों का ब्रह्म कमल खिल्याँ
हमुतैं इनु वरदान द्ये
घुली जौ रस बाच मा ,वीणा कि इन तू तान द्ये |

सच्चा ध्यो से हम सदानि ,कर्म अपणु करदी जौं
माँ , कर्म अपणू करदी जौं
तेरी अरज हम सदानि ,दीन भौ मा करदी  रौं
माँ ,दीन भौ मा करदी रौंवु
ज्ञान को छै तू समोदर ,ज्ञान को छै तू समोदर
हमु बि जरा तू ज्ञान द्ये
घुली जौ रस बाच मा ,वीणा कि इन तू तान द्ये |
 
©गीतकार एवं कम्पोजर  - संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल
(प्रवक्ता ,रा.इ.कॉ. धद्दी घण्ड्यिाल ,बडियारगढ़,टि.ग. )
                         
                

motivational garhwali kavita by sandeep rawat






Monday, August 19, 2019

अपसगुन्या कहानी


गढ़वाली कथा कहानी सीरीज में सुनिए आज संदीप रावत जी किताब से अपसगुन्या कहानी





Wednesday, August 14, 2019

गढ़वाली रचना - "रखड़ी कु त्योहार "(© संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल )

                 " रखड़ी कु त्योहार "

रखड़ी - धागू बंधौंणौ जाणा
भैs ,बैण्यू का घार ,
कखी छन बैsणी आणी-जाणी
अपणा भैय्यूं का ध्वार |
          
           द्यो-द्यबतौं से मंगणी बैsणी
           भैय्यूं कि राजि-खुसि अर प्यार ,
           भैs बि , बैण्यूं  रग्सा खातिर
            कन्नाs सौं-करार  |

रखड़ी-धागों रूप मा द्येखा
अयूं छ भलु त्योहार ,
भै-बैण्यूं का बीच खत्येणू
संग्तिs प्यार -उल्यार  |
     -ऐग्ये रखड़ी कु त्योहार ,ऐग्ये रखड़ी कु त्योहार..
         © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

       
    

Monday, August 12, 2019

गढ़वाली कविता - *आजौ मनखी *(© संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल)

              *आजौ मनखी*

आज,
बुबा-अपणा लड़िक बिटीक
लड़िक- ब्वे बुबा बिटीक
मनखी- परिवार बिटीक
परिवार- समाज बिटीक
अलग होणू छ ,
किलैकि !
वो
आजौ  मनखी छ |
              © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |

Thursday, August 8, 2019

समीक्षा - 'उदरोळ 'गढ़वाली कथा संग्रह

          हिन्दी की प्रतिष्ठित  मासिक प्रत्रिका  ' हलन्त ' के  अगस्त-2019 के अंक में संदीप रावत जी की गढ़वाली  कथा संग्रह  "उदरोळ " की समीक्षा  साहित्यकार ,विचारक व समीक्षक डॉ. चरणसिंह केदारखंडी जी द्वारा ------

**पहाड़ी लोकजीवन का साहित्यिक इंद्रधनुष है 'उदरोळ' **
                                - डॉ. चरणसिंह केदारखंडी
   
      श्रीनगर गढ़वाल में बसे और पेशे से रसायन विज्ञान के शिक्षक श्री संदीप रावत गढ़वाली भाषा, समालोचना ,कहानी और काव्य विधा के उदीयमान नक्षत्र हैं। वे शिक्षा और साहित्य के साथ साथ गढ़संस्कृति की सराहनीय सेवा कर रहे हैं। युवा पीढ़ी के इस लिख्वार की प्रतिभा ने गढ़ साहित्य के वेहद प्रतिष्ठित नामों जैसे दिवंगत भगवती प्रसाद नौटियाल, व्यंग्यकार भाई नरेंद्र कठैत,डॉ अचलानंद जखमोला, भीष्म कुकरेती ,गीतकार नेगी दा, श्रीमती बीना बेंजवाल और कवि ओमप्रकाश सेमवाल को सम्मोहित किया है। उनकी अभी तक प्रकाशित रचनाओं ने बौद्धिक जगत में व्यापक सराहना पायी है, जिसने निश्चित रूप में रावत जी को बेहतर करने के लिए प्रेरित किया होगा। पहाड़ में रहकर जिन लोगों की स्वासों में पहाड़ के दुःख दर्द, भूख नांग, बेकारी और विडंबनाएं सकारात्मक संभावनाओं का स्पर्श पाती हैं, संदीप रावत उनमे से एक हैं। एक ऐसे समय में जब आर्थिक और शैक्षिक रूप से समृद्ध उत्तराखंड की नयी पीढ़ी अपनी बोली भाषा, तीज त्यौहार ,संस्कृति और सरोकारों से निरंतर दूर होती जा रही है, ऐसे में प्रोफेसर दाता राम पुरोहित और संदीप रावत होने के गहरे निहितार्थ हैं।
      अपने व्यवहार और आचरण में पहाड़ी सरलता और खुशबू का एहसास लिए संदीप जी की सृजन यात्रा पहली कृति 'एक लपाग' से शुरू हुई। दूसरी कृति के रूप में उन्होंने 'गढ़वळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा' लिखी जो अब तक रचे गए गढ़वाली साहित्य की समालोचनात्मक मीमांसा है ।संदीप जी 'रंत रैबार' ,'खबर सार' ,डाँडी-कांठी सहित गढ़वाली को स्थान देने वाली हिंदी की सम्मानित पत्रिकाओं (जैसे हलंत,युगवाणी और रीजनल रिपोर्टर ) में भी खूब छपते हैं ।उनकी तीसरी रचना 'लोक का बाना' इसी तरह के प्रकाशित/अप्रकाशित गढ़वाली आलेख और निबंधों का संग्रह है।
अब रावत जी अपनी चौथी और नवीनतम कृति 'उदरोल' लेकर हमारे बीच आये हैं जो उनकी 34 गढ़वाली कथाओं का संग्रह है। उदरोल शब्द घपरोल के करीब है जिसका अर्थ है विघ्न पैदा करना, दूसरों को लड़ाना, उनके काम में खलल डालना। उदरोल्या आदमी "tall poppy syndrome"  की बीमारी से ग्रसित होता है और "हो त हो नैतर भौ ही खो" के दर्शन को मानता है। मुश्किल ये है कि हम सबके भीतर एक उदरोय्या बैठा हुआ है !
      चौतीस कहानियों 86 पृष्ठओं के इस लघु संग्रह को उनके आकार के बजाय आखर और सन्देश की गहराई से मापकर ही हम उसके साथ न्याय कर सकेंगे। गढ़वाली व्यंग्य और कहानी में बेहद प्रतिष्ठा हासिल कर चुके शिक्षक/साहित्यकार भाई डॉ प्रीतम अपछयाण ने इस संग्रह की सारगर्भित भूमिका लिखी है। जीवन के रंग अपनी पूरी रौ के साथ संग्रह में इस तरह समाहित हैं कि प्रीतम जी को भूमिका में लिखना पड़ा : " इ 'लघु कथा' नीन बल्कन कथा ही छन जो छवटा रूप मा छन "(पृष्ट 10).
      इस कहानी संग्रह में पहाड़ी लोकजीवन का पूरा इंद्रधनुष समाया हुआ है।इसमें दर्द है(पहली कहानी 'हलचिरु') तो रूहानी प्रेम की इबारतें भी हैं(सैंदाण)। इसमें भुतानुराग है( 'चौक' कहानी ) तो मानवता के श्रेष्ठ किस्से भी पिरोये गए हैं(मनख्यात कहानी पढ़कर आप द्रवित हुए बिना नहीं रह सकेंगे).
     एक लोक साहित्यकार के तौर पर संदीप जी आंचलिक भाषा के लुप्त हो चुके शब्दों, स्वादों, ध्वनियों और एहसासों का कोलाज पाठक के सामने इतने रुचिकर तरीके से रखते हैं कि उनके सम्मोहन से बच पाना असंभव लगने लगता है !
'उदरोल' की ज्यादातर कहानियां दो पृष्ठ की हैं,यानी चाय की प्याली ख़त्म करने से पहले पाठक एक कहानी पूरी पढ़ लेता है लेकिन उसके सन्देश को समझने के लिए पूरा सप्ताह भी कम है।
     पहली कहानी 'हलचिरु' है जो दो भाईचारे (भयात),प्रेम और फिर दुःखद बँटवारे का तफसरा है हालाँकि कहानी उनके मिलन में संपन्न होती है इसलिए 'हलचिरु' इतना नहीं चुभता। लेखक समाज के दुःख दर्दों ,उसकी बीमारियों और विकृतियों का दृष्टा होने के साथ साथ समाज का वैचारिक अगुआ और मार्गदर्शक भी होता है। पहाड़ी समाज आज भी बहुत सारी कुरीतियों के फेर में है जिसकी वजह से भोला भाला आदमी अपनी गाढ़ी कमाई को तांत्रिकों और 'बक्या' लोगों के हवाले कर देता है। इसी आलोक में लिखी गई है 'बक्या' कहानी जो समकालीन समय के लिए आईना है। 'चौक' कहानी में पाठक पहाड़ों के लिए अभिशाप बन चुके पलायन के दर्द पर आधारित  है । पूरे बीस साल बाद जब कहानी का नायक संजू अपने गांव लौटता है तो चौक की हालत देखकर अवाक् रह जाता है :
"आज वे चौक कि हालात देखिक वे कि आँखयूँ मा अंशुधरि ए ग्येनि।पैली कन आबाद रानु छो यो चौक !  ये चौक मा पैली कन घपल चौदस मचीं रांदि छै ,पर आज सब्या कुछ बदलि ग्ये छो"(पृष्ठ 32)।
    संग्रह की 12वीं कहानी 'मनख्यात' यानी मानवता युद्ध के दर्शन पर आधरित है। भक्ति और अंध राष्ट्रवाद के सतही जोश के अतिरिक्त भी युद्ध की एक भयावह और ज़मीनी सच्चाई होती है । युद्ध कोई नहीं चाहता।मरना कोई नहीं चाहता : ये दुनियां एक सैनिक को भी बहुत भाती है; जान को कौड़ियों के मोल कोई नहीं बिकाना चाहता है। लेखक ने इस दिशा में सही चिंतन किया है :
"लड़े कब्बि बि कैका वास्ता भली नि रै। चाहे वो अपूणु ह्वा या पर्यावु ,लड़े त लड़े होंद जैमा सदानि ल्वे कि खतरि होंद"(41).
     आदिवासी कबीलों की तरह आपस में एक दूसरे को मिटाने को आतुर आज के देशों के लिए कितना बड़ा सन्देश है ! 'सैंदाण' का अर्थ 'प्रेम की निशानी या समौण से है जिसे हम सौवेनिर भी कहते हैं। ये मोहन और मधु के रूहानी और अफलातूनी प्रेम का अफसाना है जिसमे दिवंगत पत्नी की निशानी (बेटी मोनी) की ख़ातिर नायक जीवन समर्पित कर देता है। 'रामु चकडै़त' दोस्तों के बीच होने वाले लोभ ,स्वार्थ और धोखे के प्रति सावधान करती कहानी है। वही शीर्षक कहानी 'उदरोळ ' में "मुस्या" चंट की दास्ताँ हैं जिसका काम लोगों के हँसते खेलते परिवारों में विग्रह पैदा करना है। गांव इस तरह के खुरापातियों के मुख्यालय बने हुए हैं जहाँ मामूली चीज़ों के लिए आप लोगों को उलझते देख सकते हैं...
कुल मिलाकर मुझे उदरोळ समकालीन पहाड़ी जनजीवन का बोलता आईना प्रतीत होता है।अपनी बोली भाषा और समाज संस्कृति से जुड़े हर संवेदनशील आदमी को इस किताब को पढ़ना और खरीदना चाहिए।
  © समीक्षक - डॉ. चरणसिंह केदारखंडी                 
                पुस्तक - उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह)
                               कथाकार - संदीप रावत
                          प्रकाशक - उत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ
                             
  नोट -  पुस्तक प्राप्ति स्थान -
            (1) उत्कर्ष प्रकाशन / फ्लिफ कार्ड
      (2) अनूप सिंह रावत ,रावत डिजिटल ,नई दिल्ली
        (3 ) विद्या बुक डिपो ,नई दिल्ली  |
         (4) भट्ट ब्रदर्स ,बसंत विहार ,देहरादून  |
     (5) ट्रांस मीडिया ,निकट रेनबो स्कूल ,श्रीनगर गढ.
     (6) सरस्वती पुस्तक भंडार ,श्रीनगर गढ़वाल |
                                        

Wednesday, August 7, 2019

गढ़वाळि कविता - जिन्दगी का पन्ना © संदीप रावत ,श्रीनगर गढ़वाल ('एक लपाग 'बटि )

                  * जिन्दगी का पन्ना *

जब खुल्दन कैsकी
जिन्दगी का पन्ना
किताबि का जन्ना
त ! यां का भित्र छुप्यां होंदन
राज कन-कन्ना ,
कैsका त भ्वरे जांदिन
अर ! कैका क्वारा हि रै जांदिन
जिन्दगी का पन्ना |
               © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |
                              ( ' एक लपाग ' बटि )

Monday, August 5, 2019

अलगवादी अर आतंकवादी तत्वों फर इक चटगताल -© संदीप रावत

     अलगवादी अर आतंकी तत्वों फर एक *चटगताल*
          धारा - 370

ह्वे ग्ये धारा तीन सौ सत्तर, जे. एण्ड के. मा खतम
कन पड़ि चटगताल बड़ी ,अब 'आतंक ' पर चट्टम |
मर्जी नी अब चलण 'तुमारि ',ल्यावा चुसणा चूसा
हत्थ बांधिक राखा, द्याखा ,बैठ्यां रावा वखम |
सब्या धाणि ,लाणू - खाणू ,रैणू  जब यखा कु छौ
क्यांकि छै फिर सुद्दि कि सेक्खी , पत्त प्वड़ौ पत्तम |
नि छौ 'देस'से बड़ाे  कब्बि क्वी बि ,य बात किलै भुलै ? रावा अंक्वैकि 'तुम' निथर,नि रौण ये जुगता वे जुगतम |
              
© संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल 05 अगस्त 2019 (जे.के.मा धारा 370 खतम होण परैं )

Thursday, August 1, 2019

गढ़वाली कविता - "सळ्ळि -सयाणा " ©संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल

        *सळ्ळि - सयाणा *

" बल,  बगच्छट बण्या
सळ्ळि सयाणा
त्रिभुज- चतुर्भुज बणैकि
फिर झट्ट एक ह्वे जाणा
अर! वख तक पौंछणा खुणी
तीड़- तिकड़म भिड़ाणा
भैर - भैर द्विफंडी- तिफंडी
अर! भितरै - भितर
एक गौळा पाणि ह्वे जाणा |"
                  © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल
 

संदीप रावत जी की गढ़वाली कविता | गढ़वाल | उत्तराखण्ड |


बडियारगढ़ में इक कार्यक्रम में संदीप
रावत की छोटी सी  कविता- "सब्र को बीज "

गढवाली प्रार्थना तेरु ही शुभाशीष च हे, जो कुछ भी पाई मिन,बन रही आकर्षक क...

Garhwali Kavita 51 | कनु भलु विकास हुणु | संदीप रावत |

Paharnama - 6 - Sandeep Rawat / Jayprakash Panwar

द्वी आखरों कु ज्ञान दे | गढ़वळि सरस्वती वंदना | संदीप रावत | अध्यक्ष आखर ...

Paharnama Special - Poetry by Sandeep Rawat

Garhwali Kavita | S01E06 | Sandeep Rawat - Basant