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Friday, August 30, 2019

हिन्दी आलेख - ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल देवलगढ़

**ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल देवलगढ़ **
               © संदीप रावत ,न्यू डांग, श्रीनगर  गढ़वाल
   
     देवलगढ़  ऐतिहासिक, पुरातात्विक महत्व रखने के साथ- साथ एक धार्मिक  महत्व भी रखता है  | यह माना जाता है कि कांगड़ा के राजा देवल यहां आये थे,जिन्होंने इसे बसाया था और उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम देवलगढ़ पड़ा |   महाराजा कनकपाल के वंशज, आनन्दपाल (द्वितीय) के पुत्र और पंवार वंशीय सैंतीसवें महाराजा अजयपाल (1493- 1547) लगभग सन् 1512 में चांदपुरगढ़ी से देवलगढ़ आए और यहां अपनी राजधानी बनाई और फिर बाद में  श्रीनगर राजधानी बनाई |  इतिहास साक्षी है कि महाराजा अजयपाल ने जब यहां के गढ़ों को जीतकर एक राज्य बनाया तो " गढ़ों वाला " से उस समय इस राज्य का नाम " गढ़वाल " पड़ा | यह गढ़वाल के प्रसिद्ध 52 गढ़ों मे से एक गढ़ है |
         गढ़ नरेश महाराजा अजयपाल ने नाथ सम्प्रदाय के लोगों की मदद से देवलगढ़ में अपना भवन तैयार किया और उसमें अपनी अराध्य देवी माता राज राजेश्वरी की स्थापना की |ऐसा कहा जाता है कि  जब महाराजा अजयपाल चांदपुर गढ़ी से सुमाड़ी गांव होते हुए देवलगढ़ आए तो रात सुमाड़ी रुके और अगले दिन वहां से सुमाड़ी गांव के लोग मां गौरा देवी की डोली को देवलगढ़ लाऐ |  ऐसा भी कहा जाता है कि - यहां राजा का भवन होने के कारण इसमें आम लोगों को जाने नहीं दिया जाता था और  तब राजा ने आम जनता हेतु मां गौरा देवी का मंदिर बनाया | श्रीनगर से लगभग 20 किमी दूर ऐतिहासिक व पुरातात्विक स्थल देवलगढ़ में मां गौरा देवी, मां राज राजेश्वरी, भैंरों नाथ, सोम का मांडा आदि प्रसिद्ध हैं |
       पुरातत्वविद्  और इतिहासकार मानते हैं कि "सोम का मांडा "( मांडा अर्थात मंडप) राजा के न्याय की गद्दी थी यानि जहां बैठकर राजा अपराधियों को सजा देता था | इसके बीच में एक खम्बा है | कई लोग यह मानते हैं कि "सोम का मांडा " के इस खम्बे में राजा धन छुपाता था और राजा खाली समय में यहां चौसर खेला करते थे | पुरातत्व विभाग के अनुसार इसे 11- 12 ईसवी में बनाया गया | इस पर जो मंत्र उकेरे गये हैं या जो लिखा गया है, उन्हें अभी तक कोई भी नहीं पढ़ या समझ पाया है, इतिहासकार या जानकार भी नहीं |
           महाराजा अजयपाल ने ही माप तौल हेतु " पाथा " की व्यवस्था की थी ,जिसे "देवली पाथा "या "द्योली पाथा " कहा जाता था | देवलगढ़ में उस समय का शिलालेख जिस पर यह लिखा है --
      " अजैपाल को धर्मपाथो भण्डारी करौं कु "
उस समय यहां गढ़वाली भाषा के प्रचलन को बताता है | महाराजा अजयपाल का नाम नाथ पंथ के साबरी ग्रन्थौं और यहां तक कि स्थानीय जादू-टोनो में "आदिगुरु "या "आदिनाथ "रूप में लिया जाता है नाथ सम्प्रदाय में इनको बाबा अजयपाल के नाम से जाना जाता हैं | साबरी मंत्रो में इस प्रकार जिक्र है -
" श्री राम चन्द्र की आण | राजा अजयपाल की आण |"
           यहां हर वर्ष बैशाखी या बिखोत के  अवसर पर मेला लगता है  | देवलगढ़ के गौरा देवी मंदिर में बैशाखी या बिखोत पर्व पर क्षेत्र की खुशहाली ,मंगलकामना  और मां गौरा को प्रसन्न करने हेतु प्रत्येक वर्ष मां गौरा देवी को मंदिर से बाहर लाया जाता है और झूला झुलाया जाता है | जैसा कि पहले जिक्र हो चुका है कि गौरा देवी सुमाड़ी गांव वालों की देवी मानी जाती है | बिखोत के दिन मां गौरा को झूला झुलाना मुख्य आकर्षण होता है | यह परंपरा सदियों से चली आ रही है | आज भी यहां  मां गौरा देवी को झूला सबसे पहले सुमाड़ी के लोग झुलाते हैं | सुमाड़ी ,बुघाणी, स्वीत, मंदोली, चकोली, भैंसकोट, फरासू, भटोली,मरखोड़ा और आसपास के गांव व क्षेत्र के लोग इस अवसर पर ढोल -दमाऊ के साथ यहां आते हैं |
        माता राज राजेश्वरी मंदिर के सहायक पुजारी बताते हैं कि-" माता राज राजेश्वरी पर्दे में रहती है और यह राजाओं,  उनियालों आदि की आराध्य देवी है | कुछ -कुछ बहुगुणाओं की कुलदेवी भी माता राज राजेश्वरी है | " इसके मुख्य पुजारी उनियाल लोग हैं |
            पुजारी श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल जी के पास देवलगढ़ से सम्बन्धित बहुत सारी वस्तुएं हैं, जिनकी वे प्रदर्शनी लगाते हैं | उनकी प्रदर्शनी में प्राचीन सिक्कों का संकलन, महाराजा अजयपाल के जमाने की तलवारें, बन्ठा ,गेडू, उस समय हलुवा बनाने की कढ़ाई, तांबे का पाथा आदि शामिल होते हैं ,जिनके माध्यम से वह देवलगढ़ की जानकारी लोगों को देते हैं | इस सम्बन्ध में अन्य भी बहुत सारी एवं पुरातन जानकारियां  श्री उनियाल जी के पास हैं |
         देवलगढ़ मे माता राज राजेश्वरी पीठ श्री गौरी व श्री सत्य नाथ पीठ के पश्चिम में केदारखंड में वर्णित "भैरों उड्यार " के पूर्व में चट्टानों पर पांच प्राचीन सुरंगे थी, जिनमें से वर्तमान में  तीन सुरंगे विद्यमान हैं। नाथ सम्प्रदाय के लोगों  से बातचीत करने पर पता लगता है एवं  श्री कुंजिका प्रसाद उनियाल के अनुसार - प्राचीन समय में  ये सुरंगें नाथ सिद्धों द्वारा अपने शिष्यों या चेलों  की तपस्या हेतु बनाई गयीं थीं । ऐसा माना जाता है कि जब उत्तराखंड में नाथ सम्प्रदाय का बोल बाला चरम पर था, यहां के  हर तबके ,हर जाति के लोग नाथ सम्प्रदाय में आने लगे थे  | उस समय नाथ सम्प्रदाय मे चेला प्रथा थी और चेलों को संस्कारित करने हेतु  इन सुरंगों में तपस्या हेतु  भेजा जाता था  | इनमें जो चेला सिद्धि प्राप्त हो जाता बाद में उसको ही सत्यनाथ की गद्दी का "पीर" घोषित किया जाता था। इतिहासकारों  का मत है कि महाराजा अजयपाल ने  आक्रमणकारियों से स्वयं और प्रजा की रक्षा के लिए इन सुंरगों को बनवाया था।  कालान्तर में गोरख्याणी के समय इन सुरंगों मे छिपकर राज परिवार और प्रजा ने  जान बचाई  थी | ये सुरंगे ऐतिहासिक महत्व की हैं  जहा पर पहुंचना बहुत ही कठिन है । कुछ लोग इनको "पणसुती "भी कहते हैं ।
        कुल मिलाकर देवलगढ़ ऐसा स्थान है जो ऐतिहासिक महत्व रखने के साथ-साथ  पुरातात्विक एंव धार्मिक महत्व रखता है | साथ ही इसे   पर्यटन से भी जोड़ा जा सकता है |
     © संदीप रावत ,न्यू डांग ,श्रीनगर गढ़वाल |
नोट- लेखक का यह आलेख "उत्तरजन टुडे " मासिक पत्रिका , निराला उत्तराखण्ड ,शिखर हिमालय हिन्दी पत्र , गढ़वाल सभा ,देहादून की स्मारिका एवं गढ़वाली भाषा में "रंत रैबार " में प्रकाशित है |