मेरी प्रकाशित पुस्तकें :-


(1) एक लपाग ( गढ़वाली कविता-गीत संग्रह)- समय साक्ष्य, (2) गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (गढ़वाली भाषा साहित्य का ऐतिहासिक क्रम )-संदर्भ एवं शोधपरक पुस्तक - विन्सर प्रकाशन, (3) लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह )- समय साक्ष्य, (4) उदरोळ ( गढ़वाली कथा संग्रह )- उत्कर्ष प्रकाशन ,मेरठ


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Thursday, February 10, 2022

' उत्तराखंड में चुनाव में यहाँ की भाषाएं कभी कोई मुद्दा नहीं होतीं।' ------संदीप रावत (गढ़वाली भाषा -साहित्य सेवी )


' चुनाव में यहाँ की भाषाएं कभी कोई मुद्दा नहीं होतीं।'
          ©संदीप रावत (गढ़वाली भाषा -साहित्य सेवी ),
          अध्यक्ष -आखर चैरिटेबल ट्रस्ट।

    हम सभी को अपना मतदान अवश्य करना चाहिए एवं सही व ईमानदार प्रत्याशी को अपना मत देना चाहिए जो विकास की बात करे,साथ ही यहाँ की लोकसंस्कृति एवं यहाँ की बोली -भाषाओं के सम्बन्ध में भी बात करे । परन्तु ये बड़ा सोचनीय विषय है कि किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में गढ़वाली, कुमाऊँनी भाषाएं और लोक संस्कृति कभी भी मुद्दा होतीं ही नहीं । गढ़वाली भाषा एवं कुमाऊँनी भाषा में निरंतर साहित्य रचा जा रहा है। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने इन भी इन भाषाओं को मान्यता दे रखी है और मानती है कि ये भाषाएं भाषा के मानचित्र या खाके पर फिट बैठती हैं। परन्तु उत्तराखंड राज्य में इन भाषाओं को द्वितीय राज भाषा का दर्जा भी नहीं मिला जबकि ये भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल होने का हक़ रखती हैं।
        इन भाषाओं को मान्यता दिलवाने की बात कोई भी दल या नेता कभी नहीं करता।केवल वोटरों को रिझाने के लिए चुनाव के समय वोट के लिए कुछ नेता गढ़वाली या कुमाउंनी में जरूर भाषण देते हैं या यहाँ की मातृभाषाओं में लोगों से बात करते हैं। गढ़वाली गीतों या कुमाऊँनी के माध्यम से भी प्रत्याशियों का खूब प्रचार हो रहा है,पर न जाने क्यों भाषा का मुद्दा हर चुनाव में गायब रहता है।

कुछ पंक्तियां चुनाव पर --
       'चुनौ'
'कैकि होंदि जीत
अर कैकि होंदि हार,
जनता उनि पित्येंद -पिसेंद
सैंदी महंगै मार।
जितणौ बाद सब्यूंन सदानि
अपणि मनै कार,
तौंकि मवासि उब्बों उठदि
अर,जनता परैं भगार।'(वर्ष 2013
में प्रकाशित पुस्तक 'एक लपाग'से ©संदीप रावत, श्रीनगर )