©संदीप रावत, न्यू डांग, श्रीनगर गढ़वाळ
कै बि समाज, क्षेत्र, जाति या देशा जीवन मा लोक साहित्य अर लोक संस्कृत्यो बड़ो महत्व होंद। एक तरौं यो कै समाजै लोक जीवना बारा मा बतौंदन। लोकसाहित्यै क्वी निश्चित परिभाषा देण कठिन छ। लोक को सम्बन्ध आत्मिक होंद अर यो प्रकृति से प्रभावित होंद। अगर लोक बटि प्रकृति तैं हटै द्यूंला त साहित्य अर लोकसाहित्य मा हम फर्क नि करी सकदां। लोक साहित्य लोकमानस कि सहज अर स्वाभाविक अभिव्यक्ति होंद। ये मा दिखलौट बिल्कुल बि नि होंद। यो अलिखित होंद अर अपणि मौखिक या वाचिक परम्परा से एक पीढ़ि बटि हैंका पीढ़ि मा जाणो रैंद। यु मन्ये जांद कि लोक साहित्य का रचनाकार अज्ञात होंदन।
मोहनलाल बाबुलकर जीक् अनुसार- ‘लोक कि वु सब्या अभिव्यक्ति जौं मा लोक रचना शक्ति का दर्शन होंदन वु लोक साहित्य छ।’ वास्तौ मा लोक साहित्य वा मौखिक अभिव्यक्ति छ क्वी न क्वी मनखी रचद,गढ़द पर वे तैं आम लोक समूह अपणु समझद किलैकि वो लोक हृदय मा रचि- बस जांद। लोक साहित्य कि क्वी एक निश्चित विधा नि होंदि , यो त आचार- बिचार, लोकोक्ति, लोककथा,लोकगाथा, लोक गीत्वूं का रूप मा एक पीढ़ि बटि हैंकि पीढ़ि मा जाणी रांद।
प्रसिद्ध समालोचक अर साहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल जीक् अनुसार-
‘‘लोकसाहित्य कि वास्तविक जैड़ लोक संस्कृत्या भितर होंद। लोक साहित्य केवल साहित्य नी बल्कि यांका अलौ धर्म, इत्यास , समाजशास्त्र,पुराण,आख्यान यानि सब्या कुछ यांका भितर छिप्यूं होंद। लोकसाहित्य लोकसांस्कृतिक वैविध्य को समग्र रूप छ अर यो लोकजीवन को ऐना होंद।’’
लोकसाहित्य कख्या बि हो ,वो समृद्ध होंद अर वेकि अपणी सक्या होंद। हमारो लोक साहित्य बि भौत समृद्ध छ अर येको भण्डार झक्क भ्वर्यूं छ। लोकसाहित्य मा सब्या भावना, खुद को चित्रण, प्रकृति को चित्रण, लोककथा, लोकगाथा-जागर, पवाड़ा, लोक गीत, आणा-पखाणा,भ्वीणा-मैणा, जंत्र-तंत्र, लोक आस्था, सब्या कुछ ऐ जांद। पर लोकसाहित्यौ काम केवल लोकगीत ,लोककथा या कहावतों तें इकबटोळ कन्न नि होंद बल्कि या त् आदिकाल बटि अनन्त काल तक मनख्यूं कि जीवन जात्राम् संग्ति ब्वगणी वळी धारा छ। लोक साहित्य कि या विशेषता छ कि भाषागत अलग-अलग होण पर्बि भावों कि नजर से सब्या जगौं या एक जन लगद । लोकसाहित्यम् खराब, बुरो अर अमंगल का वास्ता क्वी जगा नी।
इतिहासकार डाॅ0शिवप्रसाद नैथानीक् अनुसार-‘‘ लोक साहित्य अर लोकसंस्कृति मा ब्वे अर औलादौ रिश्ता होंद।जन औलाद अपणी ब्वे कि बोली याने मातृभाषौ पैलो शब्द सुण्द या सिख्द,ये ही तरौं से साहित्य अपणा जल्मदै ही सबसे पैलि अपणि लोक संस्कृत्यौ परिचय द्येण चांद। पैलि लोक साहित्य वाचिक होंदु छौ,फिर पढ़ेण बैठि अर आज त सुणण अर द्यखणै चीज ह्वेग्ये। देव सिंह पोखरिया भाषा संस्थान उत्तराखण्ड कि शोध पत्रिका ‘उद् गाथा-2010’ मा अपणा लेख मा लिखदन कि-‘‘ लोक साहित्य लोक धर्म तैं दगड़ा लेकि चल्द। जो जंत्र-मंत्र ब्वल्ये जांदा छा पैलि त वां से बिमार आदिम बि ठिक ह्वे जांदो छौ, इथगा शक्ति होंदि छै लोकमंत्रों मा।’’ उत्तराखण्डा उंचा-निसा पयार, पहाड़ै चुलंखी अर नीस गाड-गदिन्या गैरी घाटि, धारा-पंद्यरा,रौंत्येळा डांडा-कांठा,चखुल्यों च्वींच्याट, सुकेली हव्वा,यखै लैरी-खैरी हमारा जीवन तैं एक अलग द्यखणौ देंदन। अप्रत्यक्ष रूप मा यो सब हमारा जीवन मा समोदर जन गैरै अर धर्ति जन धीरज देंदन, टक्क लगैकि मीनत अर काम कन्नै सक्या देंदन। यखै लोक साहित्य अर परम्परा ये पहाड़ी समाज मा ही ज्यूंदो रैंद, कखि दूर गौं-गौळौंम् ज्यूंदो रैंद। हमारा जीवन कि सब्या अभिव्यक्ति लोकगीत ,लोककथौं या कहावतोंक् रूप मा बिकसित ह्वेनि अर यों से ही फिर हमारि लोक परम्परा, रीति रिवाज बणीन। लोक मा भौत कुछ छिप्यूं या दब्यूं
रैंद,फ्वळ्यूं रैंद पर अब आम लोग पहाड़ बटि स्यकंुद यानि सैर-बजारों तर्फां सटगणा छन त इलै लोक बि हर्चदा जाणू छ अर लोक साहित्य बि कम होंदा जाणू छ। लोक साहित्य कखि दूर पहाड़ों अर वख बस्यां गौंम् उपजि,जख मनखीन् भेळ-भंकार अर पाखा द्यखनी, डांग या ढुंगो जन कठोर जमीन मा अभौ का बीच बि हैंसदा-हैंसदा केवल ज्यूंदो नि रै बल्कि जीवन तैं भली कैरिक् जीणो सीख। वख ही लोकरंग,लोक साहित्य अर लोकसंस्कृति को जन्म व्हे । लोक साहित्य पैलि आम लोख्वूं जीवन मा ज्यूंदो छौ,रैंदो छौ,फ्वल्यूं छौ। जन जन समौ बदल्य हर्बि-हर्बि लोकसाहित्य बि कम होंदा ग्ये। आज लोकसाहित्य पढ्येणू छ, दिखाये जाणू छ पर आज यो लोक बटि हर्चदा जाणू छ। अबारि लोक साहित्य बस कखि-कखि ही दूर गौं-गळों मा जयूंदो छ।
यो सब्या जणदन कि गीत,साहित्य कि सर्वव्यापी विधा छ अर गीत लोख्वूं बीच जल्दी प्रचारित-प्रसारित ह्वे जांदिन। इन्नि लोकगीत धर्तीक् उपज होंदन अर यों मा पूरो लोक समाजौ योगदान होंद। यो लोकजीवन मा जल्दी ही प्रचारित ह्वे जांदा छा अर लोकप्रिय बि। हमारा लोक कि सबसे बड़ी खासियत या छ कि-येको हृदय मयळु छ,प्राण क्वांसो छ, यखै धर्ति गीत लगौंद,गाड-गदेरा सब गीत लगौंदन एक तरौं से। लोकमानस कि पीड़ा,यकुलांस,विरह-वेदना,अभौ लोक गीत्वूं रूप मा भैर ऐनि, उपजिन। यांका बारा मा त हमारा यख प्वथडा़ का प्वथड़ा भ्वर्यां छन,साहित्यकारोंक् बिज्यां लेख्यूं छ लोकगीत्वूं बारा मा। आज यो चिन्ता को विषय छ कि अब लोकगीत्वूं स्वरूप बि बदलेणू छ, लोकगीत
आज अपणा मूल स्वरूप मा नि छन। डाॅ राजेश्वर प्रसाद उनियाल को ब्वन छ कि-‘‘ जब लोकगीत लिखित रूप मा सामणि औंद अर छपेंद त वेको मूल स्वरूप यानि मौखिक रूप मा थ्वड़ा भौत बदलौ ऐ जांद अर कतिबेर त वेको मूलस्वरूप ही हर्चि जांद। जब अलग-अलग लोग लोकगीत्वूं तैं इकबटोळ कर्दन अर लिप्यांकन कर्दन त या त लोकगीत अपणा पूर्ण रूप मा नि होंद, अद्धा- अधूरो होंद अर आखरी बि नि होंद।वेको कारण यो छ कि लोकगीत्वूं तैं इकबटोळ कन्नौ टैम अलग-अलग होंद, अलग-अलग जगा होंदन अर जख बटि कै लोकगीतौ सूद-भेद लिये ग्ये वेको स्रोत क्या छ।’’ वास्तौ मा लोकगीत्वूं असली अर ज्यूंदो रूप त लोक मा प्रवाहित होणू रांद।
उत्तराखण्ड का लोकसाहित्य तैं समृद्ध अर बिकसित कन्न मा यखा शिल्पकार भै-बन्धोंन् यानि औजी,धामी, जागरी,बेड़ा-बद्योंन् सबचुले ज्यादा योगदान दे। ऐक तरौं से यों तैं आशु कवि ब्वले जै सकेंद। समसामयिक विषयों पर दिल तैं घैल कन्न वळा,जिकुड़ी मा छपछपी लगौण वळा गीत्वूं कि रचना कन्न वळा सल्लि छा यो। यखै जादातर लोकोक्तियों-मुहावरों याने औखाणा-पखाणौं तैं बि यों ही लोख्वूंन बणैनी। लोक संगीत, लोकगाथा-जागर,पवाड़ा, अर लोकनृत्यों से यों को जुड़ होंदु छौ। ब्वल्ये जै सकेंद कि एक तरौं से औजी,धामी, जागरी,बेड़ा-बद्योंक् वजौ से ही लोक साहित्य परम्पराओं मा ज्यंदी छै पण आजै समौ मा यों लोख्वूंन उपेक्षा कि वजौ से यों चीजों अर लोक वाद्यों से इक दूरी बणैयालि,यों परम्पराओं तैं छ्वडण पर लग्यां छन। या बि एक वजौ छ जां से हमारो लोक साहित्य बि हर्बि-हर्बि लोक बटि हर्चदा जाणू छ।
मोहनलाल बाबुलकर जीक् अनुसार- ‘लोक कि वु सब्या अभिव्यक्ति जौं मा लोक रचना शक्ति का दर्शन होंदन वु लोक साहित्य छ।’ वास्तौ मा लोक साहित्य वा मौखिक अभिव्यक्ति छ क्वी न क्वी मनखी रचद,गढ़द पर वे तैं आम लोक समूह अपणु समझद किलैकि वो लोक हृदय मा रचि- बस जांद। लोक साहित्य कि क्वी एक निश्चित विधा नि होंदि , यो त आचार- बिचार, लोकोक्ति, लोककथा,लोकगाथा, लोक गीत्वूं का रूप मा एक पीढ़ि बटि हैंकि पीढ़ि मा जाणी रांद।
प्रसिद्ध समालोचक अर साहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल जीक् अनुसार-
‘‘लोकसाहित्य कि वास्तविक जैड़ लोक संस्कृत्या भितर होंद। लोक साहित्य केवल साहित्य नी बल्कि यांका अलौ धर्म, इत्यास , समाजशास्त्र,पुराण,आख्यान यानि सब्या कुछ यांका भितर छिप्यूं होंद। लोकसाहित्य लोकसांस्कृतिक वैविध्य को समग्र रूप छ अर यो लोकजीवन को ऐना होंद।’’
लोकसाहित्य कख्या बि हो ,वो समृद्ध होंद अर वेकि अपणी सक्या होंद। हमारो लोक साहित्य बि भौत समृद्ध छ अर येको भण्डार झक्क भ्वर्यूं छ। लोकसाहित्य मा सब्या भावना, खुद को चित्रण, प्रकृति को चित्रण, लोककथा, लोकगाथा-जागर, पवाड़ा, लोक गीत, आणा-पखाणा,भ्वीणा-मैणा, जंत्र-तंत्र, लोक आस्था, सब्या कुछ ऐ जांद। पर लोकसाहित्यौ काम केवल लोकगीत ,लोककथा या कहावतों तें इकबटोळ कन्न नि होंद बल्कि या त् आदिकाल बटि अनन्त काल तक मनख्यूं कि जीवन जात्राम् संग्ति ब्वगणी वळी धारा छ। लोक साहित्य कि या विशेषता छ कि भाषागत अलग-अलग होण पर्बि भावों कि नजर से सब्या जगौं या एक जन लगद । लोकसाहित्यम् खराब, बुरो अर अमंगल का वास्ता क्वी जगा नी।
इतिहासकार डाॅ0शिवप्रसाद नैथानीक् अनुसार-‘‘ लोक साहित्य अर लोकसंस्कृति मा ब्वे अर औलादौ रिश्ता होंद।जन औलाद अपणी ब्वे कि बोली याने मातृभाषौ पैलो शब्द सुण्द या सिख्द,ये ही तरौं से साहित्य अपणा जल्मदै ही सबसे पैलि अपणि लोक संस्कृत्यौ परिचय द्येण चांद। पैलि लोक साहित्य वाचिक होंदु छौ,फिर पढ़ेण बैठि अर आज त सुणण अर द्यखणै चीज ह्वेग्ये। देव सिंह पोखरिया भाषा संस्थान उत्तराखण्ड कि शोध पत्रिका ‘उद् गाथा-2010’ मा अपणा लेख मा लिखदन कि-‘‘ लोक साहित्य लोक धर्म तैं दगड़ा लेकि चल्द। जो जंत्र-मंत्र ब्वल्ये जांदा छा पैलि त वां से बिमार आदिम बि ठिक ह्वे जांदो छौ, इथगा शक्ति होंदि छै लोकमंत्रों मा।’’ उत्तराखण्डा उंचा-निसा पयार, पहाड़ै चुलंखी अर नीस गाड-गदिन्या गैरी घाटि, धारा-पंद्यरा,रौंत्येळा डांडा-कांठा,चखुल्यों च्वींच्याट, सुकेली हव्वा,यखै लैरी-खैरी हमारा जीवन तैं एक अलग द्यखणौ देंदन। अप्रत्यक्ष रूप मा यो सब हमारा जीवन मा समोदर जन गैरै अर धर्ति जन धीरज देंदन, टक्क लगैकि मीनत अर काम कन्नै सक्या देंदन। यखै लोक साहित्य अर परम्परा ये पहाड़ी समाज मा ही ज्यूंदो रैंद, कखि दूर गौं-गौळौंम् ज्यूंदो रैंद। हमारा जीवन कि सब्या अभिव्यक्ति लोकगीत ,लोककथौं या कहावतोंक् रूप मा बिकसित ह्वेनि अर यों से ही फिर हमारि लोक परम्परा, रीति रिवाज बणीन। लोक मा भौत कुछ छिप्यूं या दब्यूं
रैंद,फ्वळ्यूं रैंद पर अब आम लोग पहाड़ बटि स्यकंुद यानि सैर-बजारों तर्फां सटगणा छन त इलै लोक बि हर्चदा जाणू छ अर लोक साहित्य बि कम होंदा जाणू छ। लोक साहित्य कखि दूर पहाड़ों अर वख बस्यां गौंम् उपजि,जख मनखीन् भेळ-भंकार अर पाखा द्यखनी, डांग या ढुंगो जन कठोर जमीन मा अभौ का बीच बि हैंसदा-हैंसदा केवल ज्यूंदो नि रै बल्कि जीवन तैं भली कैरिक् जीणो सीख। वख ही लोकरंग,लोक साहित्य अर लोकसंस्कृति को जन्म व्हे । लोक साहित्य पैलि आम लोख्वूं जीवन मा ज्यूंदो छौ,रैंदो छौ,फ्वल्यूं छौ। जन जन समौ बदल्य हर्बि-हर्बि लोकसाहित्य बि कम होंदा ग्ये। आज लोकसाहित्य पढ्येणू छ, दिखाये जाणू छ पर आज यो लोक बटि हर्चदा जाणू छ। अबारि लोक साहित्य बस कखि-कखि ही दूर गौं-गळों मा जयूंदो छ।
यो सब्या जणदन कि गीत,साहित्य कि सर्वव्यापी विधा छ अर गीत लोख्वूं बीच जल्दी प्रचारित-प्रसारित ह्वे जांदिन। इन्नि लोकगीत धर्तीक् उपज होंदन अर यों मा पूरो लोक समाजौ योगदान होंद। यो लोकजीवन मा जल्दी ही प्रचारित ह्वे जांदा छा अर लोकप्रिय बि। हमारा लोक कि सबसे बड़ी खासियत या छ कि-येको हृदय मयळु छ,प्राण क्वांसो छ, यखै धर्ति गीत लगौंद,गाड-गदेरा सब गीत लगौंदन एक तरौं से। लोकमानस कि पीड़ा,यकुलांस,विरह-वेदना,अभौ लोक गीत्वूं रूप मा भैर ऐनि, उपजिन। यांका बारा मा त हमारा यख प्वथडा़ का प्वथड़ा भ्वर्यां छन,साहित्यकारोंक् बिज्यां लेख्यूं छ लोकगीत्वूं बारा मा। आज यो चिन्ता को विषय छ कि अब लोकगीत्वूं स्वरूप बि बदलेणू छ, लोकगीत
आज अपणा मूल स्वरूप मा नि छन। डाॅ राजेश्वर प्रसाद उनियाल को ब्वन छ कि-‘‘ जब लोकगीत लिखित रूप मा सामणि औंद अर छपेंद त वेको मूल स्वरूप यानि मौखिक रूप मा थ्वड़ा भौत बदलौ ऐ जांद अर कतिबेर त वेको मूलस्वरूप ही हर्चि जांद। जब अलग-अलग लोग लोकगीत्वूं तैं इकबटोळ कर्दन अर लिप्यांकन कर्दन त या त लोकगीत अपणा पूर्ण रूप मा नि होंद, अद्धा- अधूरो होंद अर आखरी बि नि होंद।वेको कारण यो छ कि लोकगीत्वूं तैं इकबटोळ कन्नौ टैम अलग-अलग होंद, अलग-अलग जगा होंदन अर जख बटि कै लोकगीतौ सूद-भेद लिये ग्ये वेको स्रोत क्या छ।’’ वास्तौ मा लोकगीत्वूं असली अर ज्यूंदो रूप त लोक मा प्रवाहित होणू रांद।
उत्तराखण्ड का लोकसाहित्य तैं समृद्ध अर बिकसित कन्न मा यखा शिल्पकार भै-बन्धोंन् यानि औजी,धामी, जागरी,बेड़ा-बद्योंन् सबचुले ज्यादा योगदान दे। ऐक तरौं से यों तैं आशु कवि ब्वले जै सकेंद। समसामयिक विषयों पर दिल तैं घैल कन्न वळा,जिकुड़ी मा छपछपी लगौण वळा गीत्वूं कि रचना कन्न वळा सल्लि छा यो। यखै जादातर लोकोक्तियों-मुहावरों याने औखाणा-पखाणौं तैं बि यों ही लोख्वूंन बणैनी। लोक संगीत, लोकगाथा-जागर,पवाड़ा, अर लोकनृत्यों से यों को जुड़ होंदु छौ। ब्वल्ये जै सकेंद कि एक तरौं से औजी,धामी, जागरी,बेड़ा-बद्योंक् वजौ से ही लोक साहित्य परम्पराओं मा ज्यंदी छै पण आजै समौ मा यों लोख्वूंन उपेक्षा कि वजौ से यों चीजों अर लोक वाद्यों से इक दूरी बणैयालि,यों परम्पराओं तैं छ्वडण पर लग्यां छन। या बि एक वजौ छ जां से हमारो लोक साहित्य बि हर्बि-हर्बि लोक बटि हर्चदा जाणू छ।
जब लोक बचाणै बात होंद त लोक साहित्यक् सैंक-सम्भाल कन्नै छ्वीं-बत्थ बि होंदन। लोक साहित्य तैं बचैणा वास्ता वे तैं वाचिक परम्परा याने मौखिक परम्परा मा बि ज्यूंदो रखणो जरूरी छ,लोक मा ज्यूंदो रखणो जरूरी छ। केवल किताब्यूं ,आॅडियो-वीडियो सीडी या हौरि आधुनिक उपकरणों भितर समेटिक भौत ज्यादा कुछ नि होण्या। सबसे पैली बात या छ कि लोकसाहित्य अर लोकसंस्कृति लोक भाषा माध्यम से ही ज्यूंदो रै सकद्। लोक साहित्य तैं वेका वास्तविक रूप याने लोकम् अपणा मूल रूप मा ज्यूंदो रखण प्वाड़लो, तब जैकि ये कि अर परम्पराओं कि सार्थकता छ,यां से मयळदु अर संवेदनशील समाज बणलु।
लोकसाहित्य तैं सम्मान देणौ जर्वत छ अर अबारि ये तैं स्कूली पाठ्यक्रम मा बि रखणै भारी जर्वत छ ।
जुगल किशोर पेटशाली भाषा संस्थान,देहरादून कि शोध पत्रिका ‘उद्गाथा-2011,अंक दो मा अपणा लेख- ‘उत्तराखण्ड के लोकसाहित्य की मौखिक परम्परा’ मा ठीक ही लिखदन कि-‘‘ लोकसाहित्य अर जो वेकि विधा छन वो इतगा जीवंत छन कि वो हमारा लोक मा,समाज मा चाहे वो लोक अब पलायना वजौ से शहर-बजारों मा बसीग्ये पर साख्यूं कि जात्रा बाद बि वो ज्यंूदी छन अर वो अनन्त काल तक लोकमानस का हृदय मा अनन्त काल तक ज्यूंदी रालि।’’ वास्तौ मा कालै उथल-पुथल बि यों तैं खत्म नि कैरी सक्दि। जादातर विद्वान ईं बात से सहमत छन कि - जै टैम पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान नि छौ,तब बि समाज छौ अर वे टैम पर वे मा केवल लोकसाहित्य ही छौ जैमा आम मनखी अफुतैं द्यख्दो छौ, अपणि सब्बि गाणि-स्याण्यूं तैं वे मा रळै देंदो छौ। आज विज्ञानौ टैम छ अर अज्यूं बि लोक साहित्य कै ना कै रूप मा ज्यूंदो छ अर जब विज्ञान ऐंच टुक्क पर होलु अर वांका बाद पत्त भुय्यां प्वड़ण वळो होलु त तब बि लोक साहित्य कखि ना कखि ज्यूंदो रालो, यो कब्बि खत्म नि ह्वे सक्दु।
लोकसाहित्य तैं सम्मान देणौ जर्वत छ अर अबारि ये तैं स्कूली पाठ्यक्रम मा बि रखणै भारी जर्वत छ ।
जुगल किशोर पेटशाली भाषा संस्थान,देहरादून कि शोध पत्रिका ‘उद्गाथा-2011,अंक दो मा अपणा लेख- ‘उत्तराखण्ड के लोकसाहित्य की मौखिक परम्परा’ मा ठीक ही लिखदन कि-‘‘ लोकसाहित्य अर जो वेकि विधा छन वो इतगा जीवंत छन कि वो हमारा लोक मा,समाज मा चाहे वो लोक अब पलायना वजौ से शहर-बजारों मा बसीग्ये पर साख्यूं कि जात्रा बाद बि वो ज्यंूदी छन अर वो अनन्त काल तक लोकमानस का हृदय मा अनन्त काल तक ज्यूंदी रालि।’’ वास्तौ मा कालै उथल-पुथल बि यों तैं खत्म नि कैरी सक्दि। जादातर विद्वान ईं बात से सहमत छन कि - जै टैम पर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान नि छौ,तब बि समाज छौ अर वे टैम पर वे मा केवल लोकसाहित्य ही छौ जैमा आम मनखी अफुतैं द्यख्दो छौ, अपणि सब्बि गाणि-स्याण्यूं तैं वे मा रळै देंदो छौ। आज विज्ञानौ टैम छ अर अज्यूं बि लोक साहित्य कै ना कै रूप मा ज्यूंदो छ अर जब विज्ञान ऐंच टुक्क पर होलु अर वांका बाद पत्त भुय्यां प्वड़ण वळो होलु त तब बि लोक साहित्य कखि ना कखि ज्यूंदो रालो, यो कब्बि खत्म नि ह्वे सक्दु।
ये आलेख का क्वी बि अंश लेखक कि अनुमति बिना
नि लिए जै सकदा।
©संदीप रावत, न्यू डांग, श्रीनगर गढ़वाळ
🙏 सादर प्रणाम 🙏 लोकसाहित्य कु संपूर्ण अर सारगर्भित विवेचन का वास्ता नमन। बिल्कुल लोकसाहित्य कि सक्या अमर छै, चा अर युगपरयंत रैलि । 🙏
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद 🙏
Deleteभौत हि सुन्दर अर ज्ञानवर्धक जानकारी।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
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